Saturday, May 26, 2018

"किसी का नाम लो जिसको, मोहब्बत रास आई हो.!" (अंतिम भाग)



किसी का नाम लो जिसको.....

[ भाग - 8; अंतिम भाग ]

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मैंने थरथराते हाथों से उसे खोला. डर लग रहा था कि फट न जाए. लिखा था...


           “मेरे मन मंदिर के देवता! मैं आपके चरणों की दासी बनने योग्य नहीं हूँ. मेरी आराधना अभी अधूरी है. मेरी पूजा सच्ची नहीं है. तभी तो मैं आपको पा न सकी. मेरा यह जीवन अकारथ हुआ. जन्म – जन्म से आपको पाने की तपस्या इस जन्म में भी सफल न हो सकी. मैं तपस्या करती रहूँगी पर मंजिल अभी दूर है. मेरे सर्वस्व! मेरे प्रिय! मेरे पति! मैं आपकी हूँ और आपकी रहूँगी! लेकिन मैं आपका जीवन संकट में नहीं डाल सकती. आपको कुछ हो इसके पहले मैं खुद को मार डालूँगी. और यदि पापा ने अब कुछ सुना तो आपको जिन्दा नहीं छोड़ेंगे. उस दिन भी आप मिले नहीं तो बच गए. और फिर मम्मी ने मना लिया कि यदि दुबारा कुछ हो तभी कोई कदम उठायें. सो मेरी बात मानिए और यहाँ से जल्दी कहीं दूर चले जाइए. इस जनम में मिलना संभव नहीं और माता – पिता का मन दुखा कर मैं कुछ पाना भी नहीं चाहती. मेरे गले में शादी के नाम पर फांसी का फन्दा कसा जा रहा है और अगर मैंने इनकार किया तो सीधा इसका मतलब होगा आपकी मौत. मेरा शरीर दूसरे के हवाले करने की तैयारी हो चुकी है. 

अतः आपको कसम है. न आप मेरी राह में आयें, न मिलें, न कोई पत्र आदि लिखें. समझ लीजिये, मैं अब इस संसार में नहीं रही.
             सिर्फ आपकी जो आपकी न हो सकी.
                                      मधु”

            पत्र को पुनः तह करते समय मेरी एक गहरी सांस निकल गयी. मैंने पत्र और तस्वीर उन्हें वापस किया. उन्होंने दोनों चीजें लेकर फिर बटुए में रख लिया. मुझसे बोले – “सर! एक बार वो शेर दुहरा दीजिये!” मैं कुछ कहने सुनने की स्थिति में नहीं था. मैंने पूछा  – “कौन सा?” 


           “वही... किसी का नाम लो...”


           मैंने भारी मन से दुहरा दिया –


            “मैं मान लूंगा कि मुझमें कमी रही होगी,

मगर,
    किसी का नाम लो जिसको मुहब्बत रास आयी हो!”


           पर यदि उन्होंने मुझसे मेरे मन का कोई मेरा शेर कहने को कहा होता तो शायद मैं कहता -            "खुदा की इतनी बड़ी कायनात में मैंने,
           सिर्फ एक शख्स को माँगा, मुझे वही न मिला!"


           पर मैंने कहा नहीं.!


           उन्होंने अपनी आँखें पोछीं और पुछा – “कब पोस्ट करेंगे इसे?” 
           जी में आया कहूं – “मैं तो सिर्फ कहानियाँ लिखता हूँ दोस्त. तुमने तो इसे जिया है.” 

पर मेरे मुंह से निकला – “देखते हैं”.
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[ कहानी पूर्णतः काल्पनिक है और किसी भी व्यक्ति के जीवन से इसकी घटनाओं का मिलना मात्र एक संयोग है. ]


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Friday, May 25, 2018

"किसी का नाम लो जिसको, मोहब्बत रास आई हो.!" भाग :- 7



किसी का नाम लो जिसको...


[ भाग - 7 ]

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क्या वह बेवफा निकली?


           कुछ दिन बाद कॉलेज में मेरे नाम डाक से एक पत्र आया. अनुमान से भी और राइटिंग से भी लग गया कि यह मधु का ही पत्र है. सोचा जैसे का तैसा उसे वापस कर दूं. पर दिल के हाथों बेबस था. कुर्सी पर बैठा. चपरासी से एक गिलास पानी मांग कर पिया. ख़त खोल कर पढने लगा. 


           मधु ने अपना दिल खोल कर रख दिया था.
           अब मेरा मन बिलकुल नहीं लग रहा था. हर ओर एक उदासी के सिवा कुछ भी न था.
           कुछ दिन बाद पता चला उसकी शादी किसी इंजीनियर से तय कर दी गयी है. बोर्ड परीक्षाओं से पहले ही एक बड़े से मैरेज हॉउस में उसकी शादी हो गयी. मैं एक पागल की मनःस्थिति में आ गया था. क्लास लेते लेते मैं भूल जाता कि मैं क्या पढ़ा रहा था. खुद पर तरस आ रहा था. 
           कुछ दिनों बाद मधु फिर कालेज आने लगी थी. पर अब मैं क्लास में भी उसकी ओर देखने की हिम्मत नहीं कर पाता  था. वह भी किसी पेरे गए गन्ने की तरह लगती. अगर कभी हमारी निगाहें मिल भी जातीं तो हम विवश इधर उधर देखने लगते. और फिर हमें अपनी आँखें पोंछनी पडतीं.
           किस्मत ने चोट तो बहुत गहरी दी थी, पर शायद उसे कुछ रहम भी आ गया. शुरू में जो कुछ अर्जियां और इंटरव्यू दिए थे उनमे एक केमिस्ट के पोस्ट के लिए मेरा चुनाव हुआ था, पर रिजल्ट किसी आरक्षण के मुकदमें के चलते लंबित था. अब उसका रिजल्ट निकला था और मैं सेलेक्ट हो गया था. मैंने इस्तीफा देना चाहा तो प्रिंसिपल ने सेशन की बात कहते हुये इस्तीफा वापस कर दिया. पर अब मैं वहाँ नहीं रुक सकता था.
           सबने मुझे फेयरवेल दिया. सभी उदास थे. वे अध्यापक महोदय भी जिन्होंने उसका ख़त बरामद कराया था. अंत में मुझसे कुछ कहने को कहा गया. पर मैं कुछ बोल नहीं पाया.  मेरा गला रुंध गया और फिर चारो ओर सिसकी सी गूँज उठी. मैंने अपना बोरिया बिस्तर समेटा और यहाँ ज्वाइन कर लिया. आते समय मैंने मधु को देखा था. उसने उस दिन वही साड़ी पहनी थी, जो पहन कर वह होटल में आयी थी.
         
 बस. यही थी मेरी कहानी. आप इसे चाहे जैसे सजाएं-सवारें पर बस हम दोनों का असली नाम न दें|


           "और आपका परिवार?" मैंने जिज्ञासा की.


           "तीन दिनों में जो लगभग सोलह घंटे उसके साथ बिताये, वे इस ज़िन्दगी के लिए काफी हैं सर! मैं जो प्रेम प्याला पी चुका अब उसके बराबर का कोई मिलने से रहा. दुबारा ज़िंदगी मिलती है या नहीं कौन जाने? पर इस ज़िंदगी में तो मेरे लिए वे सोलह घंटे काफी हैं."
          

 पार्क में अँधेरा और सन्नाटा दोनों पसर चुका था. उन्होंने फिर एक सिगरेट जलाई. मैंने तीली की रोशनी में देखा उनकी आँखों में कुछ तारे झिलमिला रहे थे. कश खींच कर उन्होंने अपना पर्स निकाला और एक सात बाई दस सेमी की तस्वीर निकाल कर अँधेरे में ही मुझे पकड़ा दी, फिर एक अंतर्देशी पत्र भी. पर वहां इसे देखना पढना संभव नहीं था. हम पार्क के बीच लगी नियोन लाईट तक आये. तस्वीर देख कर मुझे भी झुरझुरी आ गयी. बेहद मासूम एक लडकी जिसकी आँखें जैसे बोल रही हों, तस्वीर से झाँक रही थी. कोई भी इसे देख कर काबू में नहीं रह पाता. मैंने अंतर्देशी उन्हें वापस करनी चाही. वे बोले – “कोई बात नहीं. पढ़ लीजिये”.
           मैंने थरथराते हाथों से उसे खोला. डर लग रहा था कि फट न जाए. लिखा था......,



अंतिम भाग यहाँ से पढ़े:-

Thursday, May 24, 2018

"किसी का नाम लो जिसको, मोहब्बत रास आई हो.!" भाग :- 6



किसी का नाम लो जिसको...


[ भाग - 6 ]

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उन्होंने मुझसे बात करने से इनकार कर दिया.


           बहुत अपमानजनक स्थिति थी. पहले सोचा रेजिग्नेशन दे दूं. पर नौकरी छोड़ना इतना आसान नहीं था. कमरे पर आ कर चक्कर काटता रहा.

             उसके पापा तक बात पहुंचे उसके पहले उन से साफ़ साफ़ कहने का मन हुआ. सोचा कि बता दूं कि मैं मधु से शादी करने को तैयार हूँ. यही मेरे हिसाब से सबसे उचित था. मधु जैसी लडकी मिल जाना भी एक किस्मत की बात थी और सबके मुंह भी बंद हो जाते. 

कपडे पहन कर निकला पर हिम्मत टूट गयी. जाने क्या सोचेंगे? बड़े लोग हैं. लेट कर परिस्थिति पर विचार कर रहा था कि आँख लग गयी.

                रात के नौ बज रहे थे. दरवाजे पर दस्तक हुई. पड़ोस वाले सज्जन थे. जल्दी से मुझे घसीटते हुये बाहर लाये, कमरे पर ताला डाला, और मुझे ले कर अपने घर में घुस गए. उनकी पत्नी कुछ पूछें इसके पहले उन्होंने उन्हें चुप रहने को कहा और बताया कि मधु के पापा कुछ लोगों के साथ मोहल्ले के बाहर नीम के नीचे अँधेरे में खड़े थे, और कह रहे थे कि उस मास्टर को जिन्दा मत छोड़ना. फिर मेरे कमरे पर कुछ लोग आये. मेरे बारे में पूछ-ताछ की. मुझे घर में छुपा कर वे सज्जन बाहर निकले और बताया कि मास्साब तो शाम को ही गाँव चले गए.
           
कुछ अता-पता ? 
           नहीं साहब. हमें किसी के गाँव घर से क्या लेना? पर आयेंगे ही. आप फिर आ जाइएगा. 
           बच कर निकल गया साला.
           मैं सुन रहा था. 
           आवाजें शांत हो गयीं.
           दो चार दिन तक मेरे कॉलेज के कुछ टीचर्स और अन्य लोगों ने प्रयास कर के मामले को ठंढा कर दिया. मैं फिर कॉलेज जाने लगा. पर मधु का स्कूल आना बंद था. मुझे लगता कि सबकी आँखें मुझपर ही टिकी हैं. लगता कि क्लास में स्टूडेंट्स सर झुकाए मुझ पर मुस्कुरा रहे हैं.
           कुछ दिनों बाद मधु भी कॉलेज आने लगी. उसका रंग उतर गया था. जैसे किसी लम्बी बीमारी से उठने के बाद होता है, 

वैसे, दिन में तो समय कट जाता था पर रात बहुत भारी पड़ती थी. ज़िंदगी में पहली बार प्यार किया, और वह एक गहरा दर्द दे गया. लगता कि ज़िंदगी लुट गयी है. बस गम था. बेइन्तेहाँ गम. 

                एक दिन रात को मैंने दिल उड़ेल कर एक लंबा ख़त लिखा. अब प्रतीक्षा नहीं हो पा रही थी. उसकी टास्क की कॉपी में रख कर उसे आपने हाथ से दिया.
           लैब में आ कर बैठा ही था कि पीछे से मधु आ गयी. मेरा ख़त उसने कांपते हाथों से मुझे पकड़ाया और तेज़ कदमों से लौट गयी. मन में जोर से कसक उठी. 

क्या वह बेवफा निकली???


भाग :- 7

Wednesday, May 23, 2018

"किसी का नाम लो जिसको, मोहब्बत रास आई हो" भाग :- 5




किसी का नाम लो जिसको....


[ भाग - 5 ]

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सब सो रहे हैं पर मैं तब से बैठी हूँ. हेलो! आप ही हैं न सर! हेलो!”


           मेरे जिस्म में एक सुरसुरी दौड़ रही थी. मैंने होटल के कार्ड से पता बताया. 
           “आप वेट कीजिये सर! मैं अभी पहुँचती हूँ.” 
           मैंने फ़ोन काटा, पैसे दिये और किस्मत को धन्यवाद देते हुये होटल लौट आया.


           पौन घंटे बाद मेरे कमरे के दरवाजे पर नॉक हुई. जो लडकी अन्दर आयी वह वह मधु नहीं थी जो मेरे क्लास में पढ़ती थी या जिसे मैं ट्यूशन पढाता था, या जिसे मैं जानता था. 

यह कोई दूसरी ही मधु थी. सजी – संवरी. मैंने उसे अब तक सलवार सूट में ही देखा था. आज उसने कामदार साड़ी पहनी थी. वह बड़ी लग रही थी, भव्य लग रही थी, सुन्दर तो बहुत लग रही थी. अन्दर आकर उसने कमरा अन्दर से बंद कर दिया.
           वह खिली – खिली थी और मन-मगन. पहली बार हम एकांत में मिले थे. उसके पास बहुत सी बातें थी. मैं चुप चाप सुन रहा था और उसे देख रहा था. उसने बताया कि वह इवनिंग शो का बोल कर आयी है. हमारे पास दस बजे तक का समय था.


           मैंने चाय मंगाई. चाय पी कर वह बिस्तर पर लेट गयी, निःसंकोच. वह एक तने हुये धनुष की तरह लग रही थी. उसके नेत्रों में बेपनाह आमंत्रण थे. किन्तु वे आमंत्रण नितांत सहज थे. मैं अपराध बोध महसूस कर रहा था. मैं खुद को उससे कमजोर महसूस कर रहा था. 

पहले मेरा विचार था कि कमरे में ही वक़्त बिताया जाए, किन्तु अब मुझे बाहर निकलना ही उचित लगा.
           हम बाहर आये. एक अनबूझ प्यास से गला सूख रहा था. मैंने कोकाकोला पीने का प्रस्ताव रक्खा. दो - दो बोतल पीने के बाद कुछ प्यास कम हुई. मैं आशंकित था किन्तु वह एकदम सहज थी. मुझे लगा, वह जाने क्या सोच रही होगी मेरे बारे में. 

एक रिक्शा कर के हम हजरतगंज पहुंचे. हम साढ़े नौ बजे तक खूब घूमे. खूब बातें कीं. मेरे लिए वह एक ज़िंदगी का शानदार दिन था. कम से कम उस दिन मुझे यही लगा था.
           मैं तीन दिन वहाँ रहा. वह तीन दिनों तक रोज आती रही. और इन तीन दिनों में हमने एक दूसरे को पूरी तरह पा लिया.  
           स्कूल खुले तो वह सेकंड ईअर में आ गयी थी. और हम पहले से अधिक खुल गए थे. वह अकसर लैब में आ जाती. हम बातें करते रहते. 

पर यह लोगों की नज़र में आ गया था. एक दिन मैं लैब में नहीं था. उसने मेज की दराज में एक लंबा सा ख़त डाल दिया और चली गयी. लैब बॉय एक नया छोकरा था जो बेहद शातिर था. उसने स्टाफ रूम में आ कर सबको बता दिया. सबको सांप सूंघ गया. वहाँ वह अध्यापक महोदय भी थे, जो मधु को पहले ट्यूशन पढ़ाते थे. वे सीधे प्रिंसिपल के पास पहुंचे, और प्रिंसिपल, वाइस प्रिंसिपल के साथ जा कर लैब के मेज की दराज से ख़त बरामद करा दिया. 

मैं क्लास ले रहा था. मेरे पुराने चपरासी ने आकर बताया. मैं लैब की ओर भागा. पर बात हाथ से निकल चुकी थी. मैं देर तक सन्नाटे में रहा. फिर मैंने प्रिंसिपल से बात करनी चाही. उन्होंने मुझसे बात करने से इनकार कर दिया...;




भाग :- 6

"किसी का नाम लो जिसको, मोहब्बत रास आई हो" भाग:- 4



किसी का नाम लो जिसको...


[ भाग - 4 ]

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बाद में उनकी नाराजगी भारी भी पडी....


           मधु व्यवहारकुशल भी थी. बहुत अच्छी. मेरी खूब खातिर करती. जाड़ों में स्वेटर बुन दिया. उनकी माँ भी बहुत आदर देतीं. शायद वे अपनी बेटी का मन भांप चुकी थीं. पर उसके पापा ठंढे ही बने रहे. शायद मेरे पहले इनकार को वे अपना अपमान मान कर खिंचे बैठे थे.
           कॉलेज में वार्षिक खेल कूद हुये. टीचर्स भी हिस्सा ले रहे थे. बैडमिंटन का फ़ाइनल था. टीचर्स की ओर से मैं था. स्टूडेंट्स की ओर से कालेज का चैम्पियन. मेरी तबियत कुछ खराब थी. मैं पहला सेट हार गया. मैंने देखा, मेरी हार मधु के चेहरे पर पुती ही नहीं थी, आँखों में भी झिलमिला रही थी. उसका चेहरा देखते ही कुछ हिल सा गया भीतर. मैं चैलेंजिंग मूड में आ गया. पता नहीं कहाँ से मुझमें ताकत आ गयी. मैंने दूसरे सेट पीट लिया.
           तीसरे सेट में जब शटल आख़िरी बार प्रतिद्वन्दी के कोर्ट में गिरी, तालियों से मैदान गूँज उठा और मधु ऐसे भाग कर आयी जैसे लिपट जायेगी. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं.
           एक्जाम ख़तम हो गए. मैं पर्चों के बाबत पूछने के बहाने उसके घर गया. देखा – किसी सफ़र की तैयारियां हो रही हैं. मधु गर्मियों में अपने मामा के यहाँ लखनऊ जा रही थी. उसने मौका देख कर एक पुर्जा मुझे पकडाया. 

मैंने घर आ कर पढ़ा. लिखा था – “अगर संभव हो तो आइयेगा. वहाँ बहुत से लोग हैं और बंदिशें भी नहीं. फ़ोन कर के काट दीजियेगा. तीन बार ऐसा करने से मैं समझ जाऊंगी, फिर मैं ही उठाऊंगी”.
           आखिर में एक नंबर लिखा था...!


           बोर्ड एक्जाम, फिर उनके कापियों की जांच आदि ख़तम होने पर मेरी भी छुट्टी हुई तो मैं अपना बोरिया बिस्तर समेट अपने गाँव चला गया पर मन कहीं छूट गया था. दो चार दिन तो कटे. एक दिन घर पर एक निमंत्रण आया जिसमे शादी की कोई डेट पडी थी. मैंने उसी डेट को एक दोस्त की शादी का बहाना बनाया, और लखनऊ जा पहुंचा. मैं कभी लखनऊ नहीं गया था. न ही मेरा कोई परिचित था वहाँ. एक होटल में कमरा लिया. नहा धो कर चाय पी. सिगरेट सुलगाई और नीचे उतर आया. एक पी सी ओ से नंबर ट्राई किया. वैसे ही जैसे उसने कहा था. चौथी बार उम्मीद थी कि वही उठायेगी तो नहीं काटा फोन. 

पर उम्मीद के खिलाफ किसी और ने फोन उठाया. मेरी आवाज जैसे हलक में फंस गयी. मैंने फ़ोन काटा. होटल आया. मैं निराश था. होटल के बेड पर सोचते सोचते मुझे नींद आ गयी. नींद खुली तो तीन बज रहे थे. लगा आना बेकार हुआ. पर लौटने के पहले एक बार और तकदीर आजमाने का फैसला किया. 


           इस बार मैं फोन काटूं इसके पहले ही उठा लिया गया.
“हेलो सर! सॉरी सर! मुझे उम्मीद नहीं थी तो मैं जरा एक सहेली के यहाँ चली गयी थी. लौटी तो पता चला कि किसी के ब्लेंक कॉल आ रहे थे. सब सो रहे हैं पर मैं तब से बैठी हूँ. हेलो! आप ही हैं न सर! हेलो!”


भाग :- 5

Tuesday, May 22, 2018

"किसी का नाम लो जिसको, मोहब्बत रास आई हो" भाग:- 3


किसी का नाम लो जिसको...


[ भाग - 3 ]
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रोज का तमाशा हो गया....


           एक दिन जब कापियां जांचने को मंगवाईं.,

जाने क्यों पहले उसी की कापी देखने का जी किया. कॉपी खोज कर निकाली. 

                         कॉपी बहुत सुन्दर से सजी थी. पहले पन्ने पर मैंने कभी पहले ध्यान नहीं दिया था, पर एक शंख के पीछे से निकले एक कमल की सुन्दर चित्रकारी थी और कलात्मक अक्षरों में लिखा था “मधु”. 

                   मैंने पृष्ठ पलटा. आख़िरी पृष्ठ पर जहां मैं दस्तखत करता, वहाँ एक तह किया कागज़ रखा था. मैंने खोला और पढ़ने लगा – 

पेन्सिल से लिखा था – "आप इस तरह मुझे रोज क्लास में खडा करेंगे तो मैं पढाई छोड़ दूंगी."

           मुझमें सिहरन भर गयी. अजीब सा नशा छा गया. देर तक सोचता रहा. क्या करूं ? क्या लिखूं? मन करता था कि एक लम्बा सा पत्र लिख दूं. पर जब्त किया. 

उसी कागज़ पर लिखा – “आपको पढाई में मन लगाना चाहिए!” कागज़ वहीं रख कर कॉपी बंद कर दी. सारी कापियां जांचने के लिए कमरे पर उठा ले गया. दूसरे दिन क्लास में सबको खुद ले जाकर बांटी, ताकि स्लिप ठिकाने पर बिना किसी खतरे के पहुँच जाए.
           दूसरे दिन लैब में वो प्रेक्टिकल की कॉपी मेरी टेबल पर रख कर चली गयी. खोल कर देखा – एक पृष्ठ तह किया हुआ. 

लिखा था – “आप ही बताइये क्या करें? किसी की छवि आँखों में बस गयी है. किताब में अक्षर की जगह किसी की सूरत दिखती है. नींद आती नहीं. कौर निगला नहीं जाता. मैं मन मंदिर में जिसकी आरती उतारती हूँ उसे मुझ पर दया नहीं आती. मुझे जला कर उसे अच्छा लगता है. ठीक है. मेरी किस्मत में जलना है, तो जलेंगे. उफ़ तक न करेंगे. उसे मेरी कदर होगी पर मेरे न रहने पर.”
           मैं पागल सा हो गया. हर लफ्ज जैसेे सुई चुभा रहा था. मन मसोसने सा लगा. मैंने फिर एक लंबा ख़त लिखने की सोची, पर फिर जब्त कर गया. उसी कागज़ पर बस एक पंक्ति लिखी – “जलाने वाला पहले खुद जलता है, तभी किसी को जला पाता है”.
           कापियों के बीच ख़त आते जाते रहे. आज कल जैसे स्मार्ट फोन का ज़माना तो था नहीं. व्हाट्स एप, मेसेंजर, कुछ नहीं.

(मैंने महसूस किया है कि आज कल तो फेसबुक के पोस्ट भी प्रेमपत्र की भूमिका निभाने लगे हैं. लड़की को पता है कि दरअसल यह पोस्ट उसके लिए है, बाकी लोग वाह वाह कर रहे हैं. फिर उसने भी एक पोस्ट डाल दी, तो लड़के को भी पता है कि जवाब आ गया. और कुछ नहीं तो इनबॉक्स तो है ही. फोन करने की जरूरत नहीं. चिट्ठी इधर लिखी गयी, उधर बिना खतरे के डिलीवर हो गयी. तब यह सब नहीं था. वो चोंगे वाला फोन था. कभी फोन करो तो पहले सौ सवाल. आप कौन? किससे बात करनी है? क्या काम है? वेट करिए. फिर हाँ - हूँ- ठीक है, अच्छा. और लगता जैसे चोरी कर रहे हैं. पी सी ओ के बाहर दस लोग अपनी बारी के लिए खड़े रहते, बाहर निकलने पर यूं देखते जैसे नंगा कर देंगे.)

दूसरों को देख कर ही मैं इन चोंचलों में नहीं पड़ा. बस किताबें और कापियां ही डाकिया बनती रहीं. अकेले में मिलने की तो कोई सूरत ही नहीं थी. अब पढ़ाने में मेरा मन नहीं लगता था. मुझे अफ़सोस हुआ कि उसे घर पर ट्यूशन पढ़ाने की बात से मैंने इनकार क्यों किया. ऊपर से गज़ब ये कि हाईस्कूल के एक शिक्षक महोदय ने उसकी ट्यूशन शुरू भी कर दी थी.
           एक दिन मेरे सिर में दर्द था. मैंने सोचा क्लास में कहला दूं कि बच्चे अपना रिविजन करे, कल टेस्ट लूँगा. फिर मधु को देखे बिना मन नहीं माना तो खुद जाकर कह आया. लैब में आकर बैठ गया. 

मैं सर थामे आँखें बंद किये बैठा था कि एक आवाज सी हुई, कोई टेबल के पास खड़ा था.  

देखा तो मधु थी. उसके खुली हथेली पर एक कॉम्बीफ्लाम की टेबलेट थी. “कहाँ से लाई?” पूछा. “पास में रखती हूँ. कभी कभी जरूरत पड़ती है.” कहा और चली गयी. 
           चपरासी को बुला कर पानी मंगवाया, टेबलेट निगली, पर दर्द तो जैसे टेबलेट पाते ही गायब हो गया था. 

इंटरवल में वह फिर आयी –“अब दर्द कैसा है सर?” 
           “ठीक है. टेबलेट के लिए धन्यवाद. पर आपको बार – बार मेरे पास नहीं आना चाहिए. किसी ने नोटिस किया तो?” सोचा कैसे कहूं? सर का दर्द तो ठीक हो गया पर दिल का दर्द तो बढ़ता जा रहा है.
           “लाइए आपका सर दबा दूं सर!”
           मैं पूरी तरह परास्त हो चुका था. मुझे खुद को संयत करने के लिए बहुत श्रम करना पड़ा. “मधु! अपने पापा से कह दीजिये मैं आपको ट्यूशन पढ़ाने को तैयार हूँ.”
           पहले तो जैसे वह सहम उठी, पर अचानक उत्साह दिखाते हुये बोली – “सच सर? आप हमें पढ़ाएंगे? थैंक यू सर!” और तेजी से चली गयी. 

मुझे आश्चर्य हुआ – “वह फक्क क्यों पड़ गयी थी?”
           दरअसल अब यह इतना आसान नहीं था. मैं नहीं समझ सका, पर वह समझती थी. पहले तो एक पढ़ाते ट्यूटर को हटा कर मुझे लगाना ही मुश्किल था. क्या कारण बताती? फिर अपने पापा को कन्विंस करना! पर उसने किया..!

 फिर भी जब मैं पहले दिन उसके घर पढ़ाने पहुंचा तो उसके पापा का ठंढा बर्ताव एक अजीब तनाव की तरह लगा. जो अध्यापक उसे पढ़ा रहे थे, वे भी खासे नाराज थे. 

बाद में उनकी नाराजगी भारी भी पडी..;



Monday, May 21, 2018

"किसी का नाम लो जिसको, मोहब्बत रास आई हो.!" भाग:- 2


किसी का नाम लो जिसको.....

[ भाग - 2 ]

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वह इसी बात को लेकर पहली बार आयी थी..;

           मैं खाली पीरियड्स में हमेशा लैब में बैठता था, लेकिन जब सिगरेट की तलब लगती तो स्टाफ रूम में आ जाता था. मैं स्टाफ रूम में सिगरेट के कश ले रहा था, कि उसने चिक उठा कर बड़ी अदा से कहा – 

‘मे आई कम इन सर?”

           मैंने जल्दी से सिगरेट जूतों तले मसला और सर हिला कर अन्दर आने को कहा. वह अपनी नोटबुक मेरे सामने रख कर खड़ी हो गयी. मैं कुछ समझा नहीं. पूछा – ‘क्या बात है?”

           कॉपी देख लीजिये सर!

           मैंने उलट पुलट कर देखा, आख़िरी टास्क तक कम्पलीट भी था और चेक्ड भी. मैं हैरत से बोला – “चेक्ड तो है!”

           “बात ये है सर, कि हम इतनी मेहनत से आपका दिया वर्क कर के लाते हैं, आपने कभी रिमार्क में फेयर तक नहीं दिया. बाकी सब्जेक्ट्स में हम अक्सर गुड या वैरी गुड पाते हैं. क्या हम बायोलॉजी में कमजोर हैं सर?”

           सच में उसकी नोटबुक बहुत अच्छी थी, 

स्केच भी बहुत साफ़-सुन्दर बने थे. एन्करेज्मेंट देना चाहिए था, पर मैं अपनी इमेज तोड़ने के पक्ष में नहीं था. 

आखिर इसकी इतनी हिम्मत हुई कैसे? 

मैंने अच्छी खासी डांट पिला दी. 

“क्या समझतीं हैं आप खुद को? हिन्दी नहीं है ये, बायोलॉजी है. इस तरह.....!” 

तभी एक और अध्यापक आ गए, मैंने और जोर से डांटना शुरू कर दिया. सुनती रही, और सर झुकाए चली गयी.

           उन अध्यापक महोदय ने मुझे ऐसे देखा जैसे मैं भांग खा गया होऊं. 

वो अंगरेजी पढ़ाते थे. उन्होंने काफी तारीफ़ की मधु की. उन्ही से पता चला कि पी डब्ल्यू डी के किसी बड़े अधिकारी की बेटी थी मधु. शहर में ख़ासा रूतबा था उनका. बड़ा सा बँगला था सरकारी. सरकारी गाडी मिली थी. शरीफ भी थे खासे. और पैसे वाले तो थे ही. 

लडकी भी जहीन थी, मेहनती थी. मुझे अफ़सोस हुआ. लगा कि डांटना नहीं चाहिए था.
           

शाम को उसके पापा की सरकारी जीप मेरे क्वार्टर के सामने रुकी. मैं अकेला रहता था. 

गर्मजोशी से स्वागत किया, पर मैं स्टोव जला कर चाय बनाने चला तो उन्होंने मना कर दिया. आस पड़ोस से कुछ लोग आ गए थे, सो पड़ोस से चाय नाश्ता आ गया. पर मैं भीतर ही भीतर डर रहा था. सुबह इनकी लडकी को डांट दिया, रुतबे वाला शख्श है, जाने क्या करे? देखा कमर में रिवाल्वर जैसा कुछ लटक रहा था, या शायद पिस्टल था. पर उन्होंने इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा. चाय निपटी तो बोले – 

“सर! मैं लडकी को मेडिकल में डालना चाहता हूँ. उसे लगता है कि उसे ट्यूशन की जरूरत है. आपकी बहुत तारीफ़ करती है, तो सोचा कि आपसे ही कहूं. प्लीज आप उसे कुछ वक़्त दे दें. उसकी ज़िंदगी सुधर जायेगी”.

           मैंने बहुत नम्रता पूर्वक घुमा फिरा कर असमर्थता व्यक्त कर दी. 

और मैंने यह भी कहा कि उसे ट्यूशन की कतई जरूरत नहीं है, मैं उसे पढाता हूँ, सो जानता हूँ, वह अपने दम पर अच्छा कर सकती है. 

वे कुछ ज्यादा ही आग्रह करने लगे तो मैंने साफ़ कह दिया – “देखिये, मैं प्राइवेट ट्यूशन तो नहीं करूंगा. पर उसे कोई समस्या हो तो खाली  पीरियड्स में मुझसे हेल्प ले सकती है”. 

वे निराश हो कर चले गये.
           दूसरे दिन मैंने क्लास में देखा वह सिर झुकाए बैठी थी. शायद नाराज थी, या शायद दुखी थी. मैंने उसके पिता की बात नहीं मानी थी. वो मुझसे कुछ भयभीत भी लग रही थी, कि शायद मैं फिर डांट दूंगा.

 मेरा मन भी पढ़ाने में नहीं लग रहा था. मुझे लग रहा था कि इस अच्छी सी लडकी का मन दुख गया है, और मेरी वजह से दुःख गया है. मैंने लेक्चर बीच में छोड़ दिया और कुछ मौखिक टेस्ट लेने लगा. 


उसका सिर नीचे का नीचे था.
           कुछ सवाल मैंने इधर उधर फेंके और फिर एक मुश्किल सा सवाल बोल कर तपाक से उसका नाम ले लिया. उसे पता ही न चला. 

बगल वाली लडकी ने कुहनी से टहोका तो उठ कर खड़ी हो गयी. मैंने सवाल दुहराया. 

वह कुछ देर तक सिर झुकाये खड़ी रही, फिर उदास स्वर में बोली – “नहीं पता सर!’ 

अब मैं चौंका.! मुझे पूरा विश्वास था कि उसे आता है. 

पर जाने क्या था, मैं झल्ला गया. मैंने कहा – “तो फिर आप खड़ी रहिये!” और वह पूरे टाइम खड़ी रही.
           

अब मैंने रोज आख़िरी पंद्रह मिनट क्लास में सवाल पूछने शुरू किये. रोज उससे भी कोई सवाल जरूर पूछता. उसने कभी जवाब नहीं दिया. 

सरल से सरल प्रश्न पूछ कर देखा, पर साहब अजीब जिद थी उसकी. कभी जवाब नहीं देती थी. 

मुझे लग गया कि उसने ठान लिया है कि किसी सवाल का जवाब नहीं देगी. पर क्यों..? 

मुझमें भी जिद भरती गयी. 

रोज का तमाशा हो गया....;




भाग :- 3

"किसी का नाम लो जिसको, मोहब्बत रास आई हो.!" भाग :- 1

किसी का नाम लो जिसको... 

[ भाग-1 ]

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           “फैन हूँ आपका. आप जानते ही हैं. पर एक शर्त है सर! इसे फेसबुक पर पोस्ट जरूर करिये लेकिन कृपया नाम बदल दें. 

वो क्या है, कि आप ही का शेर है...,

           देखेगा जो मुझे तुझे पहचान जाएगा, 

           आँखों में तेरा अक्स है ठहरा हुआ अभी...!

तो दोनों की बदनामी होगी. मेरा क्या है? पर शायद उसकी एक भरी पूरी दुनिया हो!”.

           “अवश्य. मुझे तो बस एक कहानी चाहिये. नाम असली देकर मुझे किसी को रुसवा नहीं करना. आपकी शर्त मंजूर”. मुझे लगा कि वह व्यक्ति एक पीर का ऐसा भरा बादल है जो कहीं बरस न सका और बरसना तो चाह रहा है किन्तु शायद ऐसी भूमि में जहां बरसना बेकार न जाये.

           सिगरेट से मुझे एलर्जी है, पर वे बिना सिगरेट के शायद शुरू नहीं कर पाते, तो मैंने किसी तरह बर्दाश्त किया. धुँआ एक गोल छल्ला बनाता उठ रहा था और मैंने इस अदा से छल्ले बनाने वाला बहुत दिनों बाद देखा था. मैं सोच रहा था – चलो कोशिश करते है. आज कल फेसबुक पर बहुत प्रेम कहानियाँ आ रहीं हैं. शायद मेरी छौंक - बघार से कोई अच्छी कहानी मिल जाए लोगों को. पार्क में अब सन्नाटा पसरने लगा था. काफी देर तक चुप्पी रही. लगा कि शायद आज का दिन बेकार जाएगा, पर नहीं, गला साफ़ कर वे जैसे – तैसे शुरू हुये.

           “देखिये, जिसे आज कल जिसे लोग प्यार कहते हैं वो उठती उम्र की एक ललक भर है. कहानियों, उपन्यासों को पढ़ कर, फिल्मों आदि को देख कर जी में उठता है कि कोई होना चाहिए. बस सबकी नज़र बचा कर पेंगें मारने में मज़ा आता है. पर जाहिर होने पर जो बे-भाव की पड़ती है, तो भूत उतर जाता है” – वे शुरू हो चुके थे.

           “मुझ पर भी सवार हो गया खब्त, पर जान-बूझ कर नहीं, अनजाने में. एक डोर थी जो खींचती चली गयी, और जब वह डोर टूटी तो मैं एक कटे पतंग की तरह था, जिसका आसमान उसे अपनाने से इनकार कर चुका था. उन दिनों मैं एक इंटर कॉलेज में बायोलॉजी का लेक्चरर था, नई पोस्टिंग थी. नया नया एम एस सी कर के निकला था, दो चार जगह आवेदन किया और वहाँ सेलेक्ट हो गया. कॉलेज की आदतें अभी बरकरार थीं. अदा से पढाता था, मेहनत से भी. साथ के अध्यापक पीठ पीछे आलोचना करते लेकिन मुझे परवाह नहीं थी. 

           हर क्लास में आठ – दस लड़कियाँ थी. फर्स्ट इअर में शायद बारह थीं, जिनमें चार को आकर्षक कहा जा सकता था. लेकिन एक तो बस तोहफा थी. चूंकि कॉलेज में कोई एम एस सी किया बायोलॉजी का टीचर न था तो जियोलॉजी और बोटनी दोनों की क्लास मुझे ही लेनी पड़ती थी, सो मैं वैसे भी एक महत्वपूर्ण हैसियत रखता था. और रिजर्व्ड भी रहता था. सो इम्प्रेशन अच्छा था. क्लास में मेरे घुसते ही सन्नाटा छा जाता था. सभी मुझे ध्यान से सुनते थे. नोट्स लिखवाता तो क्लास में कापियों के खुलने और कलम के चलने की सरसराहट फ़ैल जाती, और सभी बहुत ध्यान से सुन कर लिखते क्यों कि मुझे दुहराने की आदत नहीं थी. पांच मिनट पहले क्लास छोड़ देता था.

           स्टूडेंट्स मेरे प्रति कितने आकर्षित थे, यह उनकी नोटबुक से पता चल जाता था. सुन्दर कवर लगी कापियां जिन पर रंग बिरंगे अखबारी या पत्रिकाओं के पन्नों के कवर. ड्राइंग साफ़ सलीके से बनी हुई. हेडिगों में रंगीन स्याही का इस्तेमाल. पर नोट्स कितने भी मन से लिखे जांय मैं कभी फेयर या गुड जैसे रिमार्क्स नहीं देता था.

    "वह इसी बात को लेकर पहली बार आयी थी."



भाग:- 2

Friday, May 18, 2018

कुछ बातें उसके झुमकों की!

कुछ बातें उसके झुमकों की!

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उस लड़की पास सैकड़ों झुमके हैं। बीते सालों में वो दोनों सैकड़ों बार मिले हैं। हर बार वो कुछ भिन्न निदर्शित होती है। वही मुख, वही नेत्र, वही भाव भंगिमाएँ और वही प्रेम उसका, किंतु फिर भी कुछ भिन्न लगती है हर बार।लड़के ने ध्येयपूर्वक विचार किया तो ज्ञात हुआ कि हर बार झुमके कुछ भिन्न होते हैं। हर बार भिन्न होती है झनझनाहट, हर बार भिन्न होती है उसके मुख की आभा। इन भिन्नताओं को असंख्य रंगों और सितारों में समेटना भी असंभव है।उसके पास सैकड़ों झुमके हैं। चूँकि आभूषणों के प्रति कन्याओं के हृदय में एक अलग ही बेक़रारी होती है।मिसाल के तौर पर, अभी कुछ रोज़ पहले, एक नमूना देख रहा था, जिसमें एक लड़की तमाम गहने पहने हुए खड़ी है और नमूने में हर एक गहने का नाम लिखा है। चौंकाने वाली बात है कि कंगन, चूड़ा, बंगडी, चूड़ियाँ, पूँचियाँ, हथफूल, अँगूठी एवं अरसी तो केवल हाथ व कलाई के गहने हैं और झाझर, पगपान, बिछिया, घुँघरू, ग़ौर, पायजेब, कड़ा, तोड़ा, हिरणामन, नेवरी एवं आँवला पाँव के गहने हैं।सब से कम गहने कान में होते हैं : “कर्णफूल” और “झुमका”।श्रीमद्भागवत में “कर्णफूलों” की तुलना कनेर के पुष्पों से की गयी है : “कर्णयो कर्णिकाराम्” अर्थात् श्रीकृष्ण के कानों में कर्णिकार के पुष्प ही कर्णफूल बनकर सुशोभित हैं।झनझनाना, खिलखिलाना, कसमसाना, गुनगुनाना, जगमगाना, कितने सारे गुण झुमकों में निहित हैं।फ़िल्म “दो रास्ते” (१९६९) में राजेश खन्ना को मुमताज़ के झुमकों को चूमते और मुमताज़ को कसमसाते देखा है, तब से विश्वास ही नहीं होता कि “झुमके” निर्जीव हैं। कहीं तो अवश्य होगी वो दुनिया, जहाँ झुमकों की खेती होती होगी या पुष्पों/फलों के स्थान पर उगते होंगे झुमके!झुमकों की बनावट में बहुत प्रकार के प्रयोग होते हैं, भिन्न भिन्न रूपों में सामने आता है किंतु उसमें अभियोजित पुच्छ उपांग जो लटकन की भाँति संलग्न रहते हैं, लगभग प्रत्येक रूप में समान होता है। वो होता है, मानो बाजरे के दाने और उनका एक समूह।कभी कभी तो प्रतीत होता है कि “झुमका” बाजरे की संतति है। वैसा ही खुरदरा, कठोर, चमकीला और गोलमटोल। कदाचित् उसे देखकर ही “दुष्यंत” ने कहा होगा :“तेरे गहनों सी खनखनाती थी,बाजरे की फ़सल रही होगी!”##प्रसंग है, शिव और पार्वती के विवाह का।शिव अपने खेमे में विवाह हेतु सज्ज हो रहे हैं, शृंगार हो रहा है उनका। शृंगार तो गया किंतु अब शिव स्वयं को देखें कैसे? स्वयं के शृंगार का परीक्षण कैसे हो?शिव ने शृंगार उपरांत अपने सेवकों से खड्ग माँगा : “खड्गे निषक्तप्रतिमं ददर्श।” और उस खड्ग में स्वयं को देखा। खड्ग का ऐसा प्रयोग शिव ही कर सकते हैं।कदाचित् पार्वती निकट होतीं तो उनके नेत्रों में स्वयं को देख लेते शिव, अथवा उनके झुमकों में लटकते असंख्य दर्पणों में देख लेते स्वयं को!कभी कभी लगता है कि दर्पण की असंख्य संतति के प्रतीक हैं “झुमके”। उसी तरह चमकते और प्रतिबिंब निर्मित करते ढेर सारे दर्पणरूपी “झुमके”।##एक रोज़ लड़के ने कहा, सुनो जान, इस बार मिलेंगे तो तुम मेरे सामने बैठना, मैं अपनी कलाई तुम्हारे काँधे पर रखूँगा और तुम्हारे कान की लवें ललाऊँगा।लड़की ने मासूमियत से कहा, अपने कलाई में कड़ा पहन कर न आना, मुझे कई बार चुभ गया है।दोनों मिले, और लड़के ने अपनी कलाई लड़की के काँधे पर रखी तो कानों की लवों पर “झुमकों” को प्रहरी पाया। सूरज-से गोल, सुनहली ज़ंजीर से कानों से जुड़े “झुमके” मानो कानों की रक्षा करते हुए कृष्ण के सुदर्शन चक्र हों।कभी कभी लगता है कि सुदर्शन चक्र की संतति हैं “झुमके”। उसी के जैसे गोल, धारदार और रक्षक।##प्रेम “संगीत” से आद्यन्त निबद्ध होता है।नदी-नाव, फल-फूल संजोग की भाँति प्रेम और संगीत का साथ है। प्रेम का मोहक संगीत होता है : “झुमके” की झनझनाहट, चूड़ियों की खनखनाहट और पाज़ेब की रुनझुनाहट।यूँ तो लड़के को गिटार के तारों को मींजना भी आता है, मगर बहुत कोशिशों के बाद भी कभी “झुमकों” जैसा संगीत न आ सका!क्योंकि झुमकों के स्तर का संगीत किसी वाद्ययंत्र से प्राप्त नहीं होता, हो ही नहीं सकता। शिवमंगल सिंह “सुमन” के अनुसार प्रत्येक वस्तु का अपना एक अनुपम संगीत है :खेती लहलहाती है।गेहूँ गहगहाता है।मक्का महमहाती है।अरहर सरसराती है।बजरा हरहराता है।अलसी आँख मलती है।जौ में ज्वार आता है।मगर झुमके के विषय में चूक गये “सुमन”। काश कि “झुमका” भी पृथ्वी पर उगता तो उसके विषय में कहते : “झुमका झनझनाता है!”रात्रि के एकांत में लड़का सोचता है :विज्ञान की इतनी प्रगति हो गयी है कि सुदूर ग्रहों की हलचल व समुद्र के गर्भ में होने वाली ध्वनियाँ भी सुनी जा सकती हैं। क्या कुछ ऐसी तकनीक नहीं है कि उस लड़की के झुमकों की झनझनाहट सुनी जा सके, जब हृदय सुनना चाहे तब सुनी जा सके। क्या ऐसा कुछ संभव नहीं?कहते हैं, सर्प अपनी त्वचा से श्रवण करता है। इसीलिए अकसर लड़के को यह भी लगने लगता है कि वो भी शायद वैसा ही एक सर्प है, अपने हर ओर उस लड़की के झुमकों की झनझनाहट को सुनता है।।

लेखक:-                                    ©©   

Yogi Anurag


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Wednesday, May 9, 2018

"यादों के दोराहे" (मणीन्द्र पाण्डेय)



एक बार फिर ले आया दिल,

इस अनजाने दोराहे पर...😍
यादों और सपनों के 
बीच बैठे थे हम....
किसी के ख्यालो में.....!😊

उनकी बातों में खो गए
बाते भी झील ऐसी...
कोई भी डूबता चला जाये।
चाहत के दरमियाँ😇😇😇

दिल के किताब में,
जीवन के हर याद में;
जिंदगी के हर पन्ने पे....!
निशाँ मिलते है उनकी बिरह के.😢

कई खूबसूरत ख्वाब;
रूह को अधूरे छोड़ के।
जीवन के सफ़र में;
रिश्ता भी हमसे तोड़ के....!
गुजर जाते है वो रस्ते;
हमको तनहा छोड़ के।।

और अब..........!

गुस्ताखियों के उम्र में,
दिल उनकी यादों में कसमें ले रहा है की कभी प्यार न करूँगा.!

यादों और सपनो के बीच 
बिना हिफाजत
के जो वो मुझे इन स्याह रातों के हवाले छोड़ गया......😢

और हम फिर से उस बेकदर की याद में दुब जातें है।
अजीब रोग है ये..;


बेरुखी इतनी फिर भी मोहब्बत बेइंतहा क्यों होती है उनसे?
"ये मुहब्बत"
खुदा भी इसे ना पा सका और हम जूनिनयत में 
करवटे लेते लेते बर्बाद हो गए.😢


लेखन:-
©©
मणीन्द्र पाण्डेय

Wednesday, May 2, 2018

"क्या लिखुँ" ✍️

"क्या लिखुँ"

कि दिल को  तेरे  लुभा जाये.
कुछ पल ही सही मगर तू,
मुस्करा जाए..!
चाहता तो हूँ
वो लिखूं
दुःख कम करे तेरा;
तू वापस अपनी उसी खूबसूरत,
दुनिया में आ जाए..!
फिर भी भूल से
ख़ता ग़र मुझसे हो जाये..!
बेझिझक बतलाना की,
की खुद को सुधारा जाये.
अब तो इल्तिज़ा है मेरी
मुझे कोई बता जाये.!
"क्या लिखूं - क्या न लिखूं"
जो तेरा दिल लुभा जाये .…...😘


©©

लेखक:-

📝
आदित्य प्रकाश पाण्डेय