Wednesday, May 23, 2018

"किसी का नाम लो जिसको, मोहब्बत रास आई हो" भाग:- 4



किसी का नाम लो जिसको...


[ भाग - 4 ]

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बाद में उनकी नाराजगी भारी भी पडी....


           मधु व्यवहारकुशल भी थी. बहुत अच्छी. मेरी खूब खातिर करती. जाड़ों में स्वेटर बुन दिया. उनकी माँ भी बहुत आदर देतीं. शायद वे अपनी बेटी का मन भांप चुकी थीं. पर उसके पापा ठंढे ही बने रहे. शायद मेरे पहले इनकार को वे अपना अपमान मान कर खिंचे बैठे थे.
           कॉलेज में वार्षिक खेल कूद हुये. टीचर्स भी हिस्सा ले रहे थे. बैडमिंटन का फ़ाइनल था. टीचर्स की ओर से मैं था. स्टूडेंट्स की ओर से कालेज का चैम्पियन. मेरी तबियत कुछ खराब थी. मैं पहला सेट हार गया. मैंने देखा, मेरी हार मधु के चेहरे पर पुती ही नहीं थी, आँखों में भी झिलमिला रही थी. उसका चेहरा देखते ही कुछ हिल सा गया भीतर. मैं चैलेंजिंग मूड में आ गया. पता नहीं कहाँ से मुझमें ताकत आ गयी. मैंने दूसरे सेट पीट लिया.
           तीसरे सेट में जब शटल आख़िरी बार प्रतिद्वन्दी के कोर्ट में गिरी, तालियों से मैदान गूँज उठा और मधु ऐसे भाग कर आयी जैसे लिपट जायेगी. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं.
           एक्जाम ख़तम हो गए. मैं पर्चों के बाबत पूछने के बहाने उसके घर गया. देखा – किसी सफ़र की तैयारियां हो रही हैं. मधु गर्मियों में अपने मामा के यहाँ लखनऊ जा रही थी. उसने मौका देख कर एक पुर्जा मुझे पकडाया. 

मैंने घर आ कर पढ़ा. लिखा था – “अगर संभव हो तो आइयेगा. वहाँ बहुत से लोग हैं और बंदिशें भी नहीं. फ़ोन कर के काट दीजियेगा. तीन बार ऐसा करने से मैं समझ जाऊंगी, फिर मैं ही उठाऊंगी”.
           आखिर में एक नंबर लिखा था...!


           बोर्ड एक्जाम, फिर उनके कापियों की जांच आदि ख़तम होने पर मेरी भी छुट्टी हुई तो मैं अपना बोरिया बिस्तर समेट अपने गाँव चला गया पर मन कहीं छूट गया था. दो चार दिन तो कटे. एक दिन घर पर एक निमंत्रण आया जिसमे शादी की कोई डेट पडी थी. मैंने उसी डेट को एक दोस्त की शादी का बहाना बनाया, और लखनऊ जा पहुंचा. मैं कभी लखनऊ नहीं गया था. न ही मेरा कोई परिचित था वहाँ. एक होटल में कमरा लिया. नहा धो कर चाय पी. सिगरेट सुलगाई और नीचे उतर आया. एक पी सी ओ से नंबर ट्राई किया. वैसे ही जैसे उसने कहा था. चौथी बार उम्मीद थी कि वही उठायेगी तो नहीं काटा फोन. 

पर उम्मीद के खिलाफ किसी और ने फोन उठाया. मेरी आवाज जैसे हलक में फंस गयी. मैंने फ़ोन काटा. होटल आया. मैं निराश था. होटल के बेड पर सोचते सोचते मुझे नींद आ गयी. नींद खुली तो तीन बज रहे थे. लगा आना बेकार हुआ. पर लौटने के पहले एक बार और तकदीर आजमाने का फैसला किया. 


           इस बार मैं फोन काटूं इसके पहले ही उठा लिया गया.
“हेलो सर! सॉरी सर! मुझे उम्मीद नहीं थी तो मैं जरा एक सहेली के यहाँ चली गयी थी. लौटी तो पता चला कि किसी के ब्लेंक कॉल आ रहे थे. सब सो रहे हैं पर मैं तब से बैठी हूँ. हेलो! आप ही हैं न सर! हेलो!”


भाग :- 5