Monday, May 21, 2018

"किसी का नाम लो जिसको, मोहब्बत रास आई हो.!" भाग:- 2


किसी का नाम लो जिसको.....

[ भाग - 2 ]

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वह इसी बात को लेकर पहली बार आयी थी..;

           मैं खाली पीरियड्स में हमेशा लैब में बैठता था, लेकिन जब सिगरेट की तलब लगती तो स्टाफ रूम में आ जाता था. मैं स्टाफ रूम में सिगरेट के कश ले रहा था, कि उसने चिक उठा कर बड़ी अदा से कहा – 

‘मे आई कम इन सर?”

           मैंने जल्दी से सिगरेट जूतों तले मसला और सर हिला कर अन्दर आने को कहा. वह अपनी नोटबुक मेरे सामने रख कर खड़ी हो गयी. मैं कुछ समझा नहीं. पूछा – ‘क्या बात है?”

           कॉपी देख लीजिये सर!

           मैंने उलट पुलट कर देखा, आख़िरी टास्क तक कम्पलीट भी था और चेक्ड भी. मैं हैरत से बोला – “चेक्ड तो है!”

           “बात ये है सर, कि हम इतनी मेहनत से आपका दिया वर्क कर के लाते हैं, आपने कभी रिमार्क में फेयर तक नहीं दिया. बाकी सब्जेक्ट्स में हम अक्सर गुड या वैरी गुड पाते हैं. क्या हम बायोलॉजी में कमजोर हैं सर?”

           सच में उसकी नोटबुक बहुत अच्छी थी, 

स्केच भी बहुत साफ़-सुन्दर बने थे. एन्करेज्मेंट देना चाहिए था, पर मैं अपनी इमेज तोड़ने के पक्ष में नहीं था. 

आखिर इसकी इतनी हिम्मत हुई कैसे? 

मैंने अच्छी खासी डांट पिला दी. 

“क्या समझतीं हैं आप खुद को? हिन्दी नहीं है ये, बायोलॉजी है. इस तरह.....!” 

तभी एक और अध्यापक आ गए, मैंने और जोर से डांटना शुरू कर दिया. सुनती रही, और सर झुकाए चली गयी.

           उन अध्यापक महोदय ने मुझे ऐसे देखा जैसे मैं भांग खा गया होऊं. 

वो अंगरेजी पढ़ाते थे. उन्होंने काफी तारीफ़ की मधु की. उन्ही से पता चला कि पी डब्ल्यू डी के किसी बड़े अधिकारी की बेटी थी मधु. शहर में ख़ासा रूतबा था उनका. बड़ा सा बँगला था सरकारी. सरकारी गाडी मिली थी. शरीफ भी थे खासे. और पैसे वाले तो थे ही. 

लडकी भी जहीन थी, मेहनती थी. मुझे अफ़सोस हुआ. लगा कि डांटना नहीं चाहिए था.
           

शाम को उसके पापा की सरकारी जीप मेरे क्वार्टर के सामने रुकी. मैं अकेला रहता था. 

गर्मजोशी से स्वागत किया, पर मैं स्टोव जला कर चाय बनाने चला तो उन्होंने मना कर दिया. आस पड़ोस से कुछ लोग आ गए थे, सो पड़ोस से चाय नाश्ता आ गया. पर मैं भीतर ही भीतर डर रहा था. सुबह इनकी लडकी को डांट दिया, रुतबे वाला शख्श है, जाने क्या करे? देखा कमर में रिवाल्वर जैसा कुछ लटक रहा था, या शायद पिस्टल था. पर उन्होंने इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा. चाय निपटी तो बोले – 

“सर! मैं लडकी को मेडिकल में डालना चाहता हूँ. उसे लगता है कि उसे ट्यूशन की जरूरत है. आपकी बहुत तारीफ़ करती है, तो सोचा कि आपसे ही कहूं. प्लीज आप उसे कुछ वक़्त दे दें. उसकी ज़िंदगी सुधर जायेगी”.

           मैंने बहुत नम्रता पूर्वक घुमा फिरा कर असमर्थता व्यक्त कर दी. 

और मैंने यह भी कहा कि उसे ट्यूशन की कतई जरूरत नहीं है, मैं उसे पढाता हूँ, सो जानता हूँ, वह अपने दम पर अच्छा कर सकती है. 

वे कुछ ज्यादा ही आग्रह करने लगे तो मैंने साफ़ कह दिया – “देखिये, मैं प्राइवेट ट्यूशन तो नहीं करूंगा. पर उसे कोई समस्या हो तो खाली  पीरियड्स में मुझसे हेल्प ले सकती है”. 

वे निराश हो कर चले गये.
           दूसरे दिन मैंने क्लास में देखा वह सिर झुकाए बैठी थी. शायद नाराज थी, या शायद दुखी थी. मैंने उसके पिता की बात नहीं मानी थी. वो मुझसे कुछ भयभीत भी लग रही थी, कि शायद मैं फिर डांट दूंगा.

 मेरा मन भी पढ़ाने में नहीं लग रहा था. मुझे लग रहा था कि इस अच्छी सी लडकी का मन दुख गया है, और मेरी वजह से दुःख गया है. मैंने लेक्चर बीच में छोड़ दिया और कुछ मौखिक टेस्ट लेने लगा. 


उसका सिर नीचे का नीचे था.
           कुछ सवाल मैंने इधर उधर फेंके और फिर एक मुश्किल सा सवाल बोल कर तपाक से उसका नाम ले लिया. उसे पता ही न चला. 

बगल वाली लडकी ने कुहनी से टहोका तो उठ कर खड़ी हो गयी. मैंने सवाल दुहराया. 

वह कुछ देर तक सिर झुकाये खड़ी रही, फिर उदास स्वर में बोली – “नहीं पता सर!’ 

अब मैं चौंका.! मुझे पूरा विश्वास था कि उसे आता है. 

पर जाने क्या था, मैं झल्ला गया. मैंने कहा – “तो फिर आप खड़ी रहिये!” और वह पूरे टाइम खड़ी रही.
           

अब मैंने रोज आख़िरी पंद्रह मिनट क्लास में सवाल पूछने शुरू किये. रोज उससे भी कोई सवाल जरूर पूछता. उसने कभी जवाब नहीं दिया. 

सरल से सरल प्रश्न पूछ कर देखा, पर साहब अजीब जिद थी उसकी. कभी जवाब नहीं देती थी. 

मुझे लग गया कि उसने ठान लिया है कि किसी सवाल का जवाब नहीं देगी. पर क्यों..? 

मुझमें भी जिद भरती गयी. 

रोज का तमाशा हो गया....;




भाग :- 3