किसी का नाम लो जिसको...
[ भाग - 7 ]
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क्या वह बेवफा निकली?
कुछ दिन बाद कॉलेज में मेरे नाम डाक से एक पत्र आया. अनुमान से भी और राइटिंग से भी लग गया कि यह मधु का ही पत्र है. सोचा जैसे का तैसा उसे वापस कर दूं. पर दिल के हाथों बेबस था. कुर्सी पर बैठा. चपरासी से एक गिलास पानी मांग कर पिया. ख़त खोल कर पढने लगा.
मधु ने अपना दिल खोल कर रख दिया था.
अब मेरा मन बिलकुल नहीं लग रहा था. हर ओर एक उदासी के सिवा कुछ भी न था.
कुछ दिन बाद पता चला उसकी शादी किसी इंजीनियर से तय कर दी गयी है. बोर्ड परीक्षाओं से पहले ही एक बड़े से मैरेज हॉउस में उसकी शादी हो गयी. मैं एक पागल की मनःस्थिति में आ गया था. क्लास लेते लेते मैं भूल जाता कि मैं क्या पढ़ा रहा था. खुद पर तरस आ रहा था.
कुछ दिनों बाद मधु फिर कालेज आने लगी थी. पर अब मैं क्लास में भी उसकी ओर देखने की हिम्मत नहीं कर पाता था. वह भी किसी पेरे गए गन्ने की तरह लगती. अगर कभी हमारी निगाहें मिल भी जातीं तो हम विवश इधर उधर देखने लगते. और फिर हमें अपनी आँखें पोंछनी पडतीं.
किस्मत ने चोट तो बहुत गहरी दी थी, पर शायद उसे कुछ रहम भी आ गया. शुरू में जो कुछ अर्जियां और इंटरव्यू दिए थे उनमे एक केमिस्ट के पोस्ट के लिए मेरा चुनाव हुआ था, पर रिजल्ट किसी आरक्षण के मुकदमें के चलते लंबित था. अब उसका रिजल्ट निकला था और मैं सेलेक्ट हो गया था. मैंने इस्तीफा देना चाहा तो प्रिंसिपल ने सेशन की बात कहते हुये इस्तीफा वापस कर दिया. पर अब मैं वहाँ नहीं रुक सकता था.
सबने मुझे फेयरवेल दिया. सभी उदास थे. वे अध्यापक महोदय भी जिन्होंने उसका ख़त बरामद कराया था. अंत में मुझसे कुछ कहने को कहा गया. पर मैं कुछ बोल नहीं पाया. मेरा गला रुंध गया और फिर चारो ओर सिसकी सी गूँज उठी. मैंने अपना बोरिया बिस्तर समेटा और यहाँ ज्वाइन कर लिया. आते समय मैंने मधु को देखा था. उसने उस दिन वही साड़ी पहनी थी, जो पहन कर वह होटल में आयी थी.
बस. यही थी मेरी कहानी. आप इसे चाहे जैसे सजाएं-सवारें पर बस हम दोनों का असली नाम न दें|
"और आपका परिवार?" मैंने जिज्ञासा की.
"तीन दिनों में जो लगभग सोलह घंटे उसके साथ बिताये, वे इस ज़िन्दगी के लिए काफी हैं सर! मैं जो प्रेम प्याला पी चुका अब उसके बराबर का कोई मिलने से रहा. दुबारा ज़िंदगी मिलती है या नहीं कौन जाने? पर इस ज़िंदगी में तो मेरे लिए वे सोलह घंटे काफी हैं."
पार्क में अँधेरा और सन्नाटा दोनों पसर चुका था. उन्होंने फिर एक सिगरेट जलाई. मैंने तीली की रोशनी में देखा उनकी आँखों में कुछ तारे झिलमिला रहे थे. कश खींच कर उन्होंने अपना पर्स निकाला और एक सात बाई दस सेमी की तस्वीर निकाल कर अँधेरे में ही मुझे पकड़ा दी, फिर एक अंतर्देशी पत्र भी. पर वहां इसे देखना पढना संभव नहीं था. हम पार्क के बीच लगी नियोन लाईट तक आये. तस्वीर देख कर मुझे भी झुरझुरी आ गयी. बेहद मासूम एक लडकी जिसकी आँखें जैसे बोल रही हों, तस्वीर से झाँक रही थी. कोई भी इसे देख कर काबू में नहीं रह पाता. मैंने अंतर्देशी उन्हें वापस करनी चाही. वे बोले – “कोई बात नहीं. पढ़ लीजिये”.
मैंने थरथराते हाथों से उसे खोला. डर लग रहा था कि फट न जाए. लिखा था......,