Wednesday, March 11, 2020

आख़िरी कॉल.। (भाग -5)



आख़िरी कॉल.। (भाग -5)


लिंक (भाग -4)

रुबीना ने चुटकी लिया , "अब जो कुछ भी हो आप ही किस्मत में हो तो झेलना तो पड़ेगा न..; हहहहह। "
राहुल भी हंस रहा था.... "किस्मत औऱ मैं.! मोहतरमा मैं किस्मत नहीं फूटी क़िस्मत हूँ...."
दोनों हँसने लगे........


राहुल हँस रहा था , "लेक़िन कहीं न कहीं रुबीना के भईया का  उससे मिलने आना उसे हज़म नहीं हो रहा था..।

उसके दिमाग में कई बातें चल रही थी !"

इसी उधेड़बुन में आख़िर उसने पूछ ही दिया , "अच्छा ये बताइये आप अपने भइया से क्यूँ मिलवा रहे हो मुझे, कोई खास बात है क्या..?"


रुबीना  औऱ तेज़ हंसने लगी , लेक़िन इस हंसी के पीछे एक हल्का सा डर था ..... उसने राहुल को बिन पूछे इतना सबकुछ प्लान जो कर लिया था।

ख़ैर उसको एक अलग लेवल का विश्वास हो चुका था अपने प्रेम पर।

वो ख़ुश थी अपने फ़ैसले से.। 

वो अंदर से तो बहुत झिझक रही थी लेक़िन बाहर ख़ुद को बिल्कुल सहज दिखाते हुए बोला, "ये लीजिये! अब लड़की वाले लड़के से क्यूँ मिलने आते हैं भला..! जाहिर सी बात है भइया आपसे  शादी के लिए बात करेंगे "

राहुल मामला भाँप गया था।

वो स्तब्ध था... लेक़िन बाहर से ख़ुद को सहज बनाये रखने की भरपूर कोशिशें कर रहा था.!

अपने जीवन में कई बार उसने लड़कियों के प्रस्ताव ठुकराए थे,  लेकिन ये पहली बार था जब राहुल निःशब्द हुआ जा रहा था.....। 

औऱ इसके पीछे केवल एक हीं वजह थी के रुबीना पिछली लड़कियों से बिल्कुल अलग थी..; "कहीं न कहीं राहुल भी प्रभावित था उससे"

                  एक खोंखले से ठहाके के साथ राहुल ने अपना आख़िरी अस्त्र भी छोड़ दिया.......  "हएं...! आपके भईया मुझसे शादी करना चाहते हैं..! अरे भई समझाइये उनको मैं उस टाइप का लड़का नहीं हूँ... हमको माफ़ करें... हम तो किसी लड़की से भी शादी करने के लिए अभी प्रिपेयर नहीं महसूस कर रहे हैं" माफ़ कीजियेगा ......।


रुबीना अचानक से चुप हो गई थी ! 

उसको शायद आभास हो गया था कि राहुल के मन में क्या चल रहा है.., उसका हंसना बन्द था...।

वो एकटक राहुल को निहार रही थी...। अब उसकी आँखें चमकने लगी थी औऱ एकाध बूंदे गालो पर लुढ़क चली थीं....। 

वो चुप थी, बिल्कुल चुप..!

                   राहुल ने बहुत दिनों बाद रुबीना को चुप देखा था, औऱ ये चुप्पी राहुल को परेशान किये जा रही थी..।

उसने खुद से वायदा किया था कि अब कभी रुबीना को रोने नहीं देगा, कमसे कम तबतक जबतक उसके साथ है !

वो सोच रहा था, कोई जवाब जिससे रुबीना फ़िर से ठहाके भरने लगे. ...।
                   

                 राहुल अभी सोच में ही डूबा था तबतक उसके हाथों पे कुछ ठंढा स्पर्श महसूस हुआ........ ये रुबीना थी! 

उसके सामने नीचे अपने घुटनों के बल रुबीना याचक की मुद्रा में थी...। 

उसकी आँखों से गिरती एकाध बूंदे अब निरन्तरता के भाव में झरने का रूप ले चुकी थी। 

राहुल के आँखों में एकटक झाँकती उसकी आँखें बहुत कुछ कह रहीं थीं....। 

राहुल भी अच्छे तरह से पढ़ पा रहा था उसकी आँखों को..।
                    

                   अचानक से रुबीना की आवाज़ ने दोनों की चुप्पी से उपजी शांति को तोड़ा, "राहुल मुझसे शादी करलो प्लीज़....!

मैंने आपके ही साथ जीवन की कल्पना कर ली है...;

मैं जानती हूँ कि ये मेरी ग़लती है कि मैंनें आपके फ़्रेण्डशिप को प्रेम मानकर जिया है....!

मैं गुनहगार हूँ आपकी..., औऱ मुझे अपने इस गुनाह की हर सज़ा मंजूर है...!

लेक़िन, प्लीज़ राहुल आप मुझे अपना लो........ मैं आपके बग़ैर जी हीं नहीं पाऊँगी....।"


उसकी आवाज़ में याचना थी..; गिड़गिड़ाहट में मार्मिकता ऐसी कि क्या बताऊँ, ऐसा लग रहा था  जैसे कोई मरने वाला अपना जीवन भीख में मांग रहा हो...। 
     

                         राहुल बहुत परेशान था..! उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था , या फ़िर उस समय वो चुप रहना ही उचित समझ रहा था..। 

रुबीना के आँसू उससे देखे नहीं जा रहे थे... लेक़िन फ़िर भी वह चुप था.।

अचानक रुबीना के मोबाइल में रिंगटोन बजी, उसने दो - तीन रिंग्स में ही कॉल रिसीव कर लिया.। 

कॉल पर सद्दाम की आवाज़ गूँजी, "हाँ किधर हो तुमलोग .? मैं अभी ये होटल के बाहर खड़ा हूँ , अंदर आ जाऊँ क्या..?"

 रुबीना ने बिना जवाब दिए कॉल काट दी.।


वो उसे रिसीव करने बाहर की तरफ ही जाने लगी, उसकी आँखों से आँसू अभी भी वैसे हीं झर रहे थे...;

जैसे - तैसे आँखें पोंछते हुए वो बाहर निकलने लगी.।



क्रमशः......

©

✍🏻 आदित्य प्रकाश पाण्डेय

Monday, March 9, 2020

आख़िरी कॉल.। (भाग -4)




आख़िरी कॉल.। (भाग -4)


                   कुल मिलाकर पूरे मुहल्ले के लिए ये परिवार बिल्कुल वैसा ही था जैसे कौवों के बीच हंस हो....।


दोपहर के डेढ़ बज रहे थे औऱ सिरहाने के पास पडे  फ़ोन में बेतरतीब अलार्म बजा जा रहा था.; कोई दो - तीन बार इग्नोर करने के बाद आखिरकार राहुल को जगना ही पड़ा.!

                वो उठा मुँह धोया तबतक उसे अचानक से याद आया कि अभी रुबीना से मिलने भी जाना है .।
वो हड़बड़ी में इधर - उधर दौड़कर तैयार होने लगा ; रविवार का दिन था तमाम काम थे उसके जिम्मे लेक़िन अभी तो ये हाल था कि उसके नहाने के लिए भी समय नहीं बच पाया था।


फ़िर क्या हमेशा की तरह ढेर सारा बॉडी-स्प्रे , और सिर में हल्का तेल पोतकर   राहुल तैयार हो गया था!  ब्लू जीन्स औऱ सफ़ेद कुर्ता पहनकर राहुल बिल्कुल वैसे ही तैयार हुआ था जैसे रुबीना ने कहा था.।


राहुल ने जल्दी से बाइक निकाली औऱ रेस्टोरेंट की तरफ निकल पड़ा , रास्ते में भी उसके मन में कोई ख़ास मीटिंग जैसे भाव  नहीं थे! वो लगभग अब मान चुका था कि रुबीना किसी फ़्रेंड से ही मिलवाने वाली है...।


"क्या होगा ज्यादा से ज्यादा कॉफ़ी पीयेंगे औऱ फ़िर एकाध घण्टे बातें होंगी.; कोई ज़्यादा पहचान वाला तो होगा नहीं.... औऱ होगा भी तो कैसे रुबीना के अलावा उसके परिवार के बारे में भी कोई बात नहीं किये आज़तक रिश्तेदारों की तो पूछो ही मत....
ख़ैर, कोई भी होगा मुझे अच्छे से आता है कि कैसे मिलना है उनसे , उसे महसूस नहीं होने दूँगा की पहली बार मिला हूँ ..!"
राहुल खुद में बुदबुदाये जा रहा था, कभी - कभी अपनी योग्यताओं पर खुद को शाबाशी भी दे रहा था..।
औऱ दे भी तो क्यूँ नहीं वो वास्तव में शाबाशी योग्य था, "उसमें बहुत सी आदतें असामान्य थी.. दुर्लभ थीं"


               राहुल अभी इन्हीं बातों में डूबते - उतराते आगे बढ़ रहा था की अचानक बारिश होने लगी। शहर का ये इलाका अभी खाली प्लॉट्स से भरा पड़ा था, कुछ प्लॉट्स में कंस्ट्रक्शन तो चल रहा था लेक़िन बारिश की वजह से वहाँ भी काम बंद पड़ गया था.।


राहुल चाहता तो वहीं किसी तिरपाल के नीचे खुद को भीगने से बचा लेता, लेक़िन घड़ी देखकर उसका इरादा बदल गया.; 

        "वो भींग भी सकता था औऱ कड़े धूप में तप भी सकता था ..; ना कि केवल रुबीना के लिए बल्कि किसी भी महिला के लिए उसकी यहीं सोच रहती, यहीं स्टैंड रहता.!

 ये सनातन पोषित सभ्यताओं की सुंदरता है.।"


गाड़ी कुछ सड़को औऱ गलियों से होती हुई अब कॉफी शॉप के सामने ख़डी हो चुकी थी.; राहुल ने हैंडल लॉक किया औऱ अपने बालों को झटक कर पानी सुखाने लगा. ।
बारिश कुछ ज़्यादा तो नहीं आई, लेक़िन कुर्ते को भिगोने के लिए पर्याप्त थी.; भींगे हुए सफ़ेद कुर्ते से पीला जनेऊ स्पष्ट औऱ आकर्षक दिख रहा था।


राहुल ज़्यादा भक्तिभाव तो नहीं रखता था, लेक़िन अपनी सभ्यता औऱ परम्पराओं के लिए उसके हृदय में अत्यंत सम्मान की भावना थी..।
              वो जनेऊ पहनता था, कभी - कभार पास वाले मंदिर पर पुजारी बाबा को कुछ पैसे भी दे आता था., "उसको ये मालूम था कि इस नए दौर में सो-कॉल्ड मॉडर्न हिंदुओं के मोहल्ले में पुजारी बाबा को कभी -  कभार भूखे पेट भी सोना पड़ जाता है.।"


             उसने मुँह हाथ से पानी पोंछा औऱ शॉप के अंदर प्रवेश कर गया। कुछ ज़्यादा भीड़ नहीं थी... पीछे कोने वाले टेबल पर रुबीना इन्तिज़ार में बैठी थी.।
       "लेक़िन ये क्या वो तो अकेली है!" राहुल   सोचते हुए आगे बढ़ा.। 

रुबीना ने उठकर राहुल को प्रणाम किया औऱ दोनों आम

ने - सामने वाली कुर्सी पर बैठ गए.।


ये क्या आप किसी से मिलवाने वाले थे मुझे ..? राहुल ने सवाल किया....


रुबीना हल्की डरी हुई सी लेक़िन ज्यादा एक्साइटेड थी उसे विश्वास था कि भाई को राहुल पसन्द आएंगे...; वो मुस्कुरा के बोली "अरे बाबा वेट कीजिए भाई जान निकल गए हैं वहां से, अब पहुँचने वाले होंगे... शायद बारिश में कहीं रुक गए है। अब हर कोई आपकी तरह मेरे लिए भींग तो नहीं सकता ना..."


राहुल हल्का चौंक कर बोला...

 "आपके भइया आ रहे हैं..., वो भी मुझसे मिलने!

वाह.! मैं कुछ ज्यादा हीं पॉपुलर नहीं हो गया आजकल.! "

              

 रुबीना ने चुटकी लिया , "अब जो कुछ भी हो आप ही किस्मत में हो तो झेलना तो पड़ेगा न..; हहहहह। "


राहुल भी हंस रहा था.... "किस्मत औऱ मैं.! मोहतरमा मैं किस्मत नहीं फूटी क़िस्मत हूँ...."


दोनों हँसने लगे............



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✍🏻 आदित्य प्रकाश पाण्डेय

Sunday, March 8, 2020

आख़िरी कॉल.। (भाग -3)



आख़िरी कॉल (भाग -3)


लिंक (भाग -2)

वो सोच रहा था रुबीना भी समझ जाएगी समझाने से।

रविवार का दिन था , 6 बजे सुबह में ही फोन की घण्टी बजी.; "राहुल दो दिनों से लगातार ऑफिस से लेट आ रहा था सो नींद अधूरी ही मिल पाई थी".।
वो झल्लाते हुए बोला  "हाँ.. कौन इतनी सुबह यार....??"

उधर से रुबीना की आवाज़ गूँजी "हाँ जी मैं.......  गुड मॉर्निंग..... अभी सो रहे होंगे आप मुझे मालूम है.... सॉरी, सॉरी.. लेकिन अर्जेंट था इसीलिए आपको परेशान किया... आप सुन रहे हो ना...? आप गुस्सा तो नहीं हुए ना..??

राहुल की झुँझलाहट  अब मुस्कुराहट में तब्दील हो चुकी थी, उसने हँसते हुए कहा "अरे देवी मैं क्यूँ गुस्सा होने लगा आप पर ! आप बोलने का मौका ही कहाँ देते हो कि मैं जवाब दूँ..... कहिये क्या खास बात है जो इतने बेताब हुए जा रहे हो आप..?"

          रुबीना कुछ ज्यादे  हीं जल्दीबाज़ी में थी; हड़बड़ाहट में उसने बस इतना ही बोला "कॉफ़ी कोलाज आ जाइयेगा ढाई बजे औऱ हाँ कुछ अच्छे कपड़ों में, किसी से मिलवाना है आपको..... ओके... बाय.. "
और उसने फ़ोन कट कर दिया.।


राहुल भी फ़ोन सिरहाने रखकर फिर से लेट गया, उसने ये सोचा कि कोई फ़्रेंड होगी या होगा! 
"उसे ये सब बातें इतनी सीरियस भी नहीं लगती थी औऱ इनका ज्ञान भी नहीं था..।"
फ़ोन में डेढ़ बजे का अलार्म सेट करके वो फ़िर नींद के आगोश में समा गया.।


इधर रुबीना अपने तैयारियों में व्यस्त थी.;
बार - बार नाखूनों में रंग लगाती और हटाती .! 
क्या करे उसे तो ये भी नहीं मालूम था न, कि राहुल को कौन सा रंग भाता है.। वो तो आरम्भ में थी एक ऐसे प्रेम कहानी के जिसके लिए राहूल ने कुछ सोचा भी नहीं था।
रुबीना के मन में तरह - तरह के सवाल आ रहे थे । वो खुद से पूछ रही थी, औऱ खुद को ही जवाब दे रही थी.!
"क्या भाई जान को राहुल जी पसन्द आएंगे.?  मेरा हाल फ़ातिमा जैसा तो नहीं होगा ना.? क्या मुझे प्रेमविवाह करने की आजादी मिलेगी, या मेरा भी जबरन किसी औऱ के साथ निकाह करा दिया जाएगा"
लेक़िन इन सभी सवालों के जवाब में उसे सद्दाम का कहा याद आ जाता था, "देख रुबीना तू पढ़ रही है औऱ हमलोग तुझे ऐसे जाहिलियत नहीं देखने देंगे तुझे जब मर्जी जिससे मर्जी तू निकाह कर सकती है बस लड़का अच्छा चुनना जो हमें पसन्द आये......!"


प्रोफेसर बशीर  अपने इलाके के इज्जतदार लोगों में गिने जाते थे, और नौकरी रहते इज्ज़त के साथ पैसे भी अच्छे कमाएँ थे, दो ही बच्चे थे इसलिए उन्हें अच्छी शिक्षा भी नसीब हो पाई थी।
सद्दाम रुबीना से दो साल बड़ा था औऱ ग्रेजुएशन के बाद लाल मस्जिद के एक ट्रस्ट में काम करने लगा था!
                   कुल मिलाकर पूरे मुहल्ले के लिए ये परिवार बिल्कुल वैसा ही था जैसे कौवों के बीच हंस हो....।




लिंक (भाग -4)



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✍️ आदित्य प्रकाश पाण्डेय


Friday, March 6, 2020

आख़िरी कॉल.। (भाग -2)



आख़िरी कॉल (भाग -2)

लिंक (भाग -1)

उसे याद आ रही थी हर वो बात जो उसने अपने शुरुआती दिनों में बड़े ही ईमानदारी से कह दी थी.; सारे वायदे उसकी कानों में गूँज रहे थे..।

राहुल रो रहा था आज, "अपने कुछ फैसलों पर".।कोस रहा था अपनी कुछ आदतों को।


साल भर पहले ही एक दूसरे से मिले थे  दोनों ...; राहुल के ऑफिस फ्रेंड की गर्लफ्रैंड थी रुबीना.।
उस दोस्त ने एक जगह बहुत बड़े लफड़े में फंसा कर छोड़ दिया था रुबीना को, तब राहुल ने बहुत साथ दिया औऱ रुबीना को इस प्रॉब्लम से निकाल भी दिया था।


                    राहुल बचपन से ही औरतों के प्रति बहुत श्रद्धा रखता था.। वज़ह ये था कि उसकी माँ ने उसके जन्म के समय अपने प्राण त्याग दिए थे !
वो एहसास करता था एक स्त्री के दुःख को , औऱ अपनी इन्हीं भावनाओं के वज़ह से वो स्कूल के ज़माने से ही किसी भी लड़की के लिए मारपिटाई करने को तैयार हो जाता था।
कॉलेज में तो लड़कियों ने उसे "फ़ायरवॉल" नाम दे दिया था.।

 

                हाँ तो राहुल ने आदतन उसकी भी बहुत हेल्प करी, लेक़िन इस हेल्प को रुबीना प्यार समझ बैठी.।
वो राहुल के एहसानों से दबे महसूस कर रही थी खुद को.।
उसकी भी ग़लती नहीं थी, वो टूट चुकी थी औऱ राहुल उसे दोबारा जोड़ने में लगा था.; रोज़ घण्टों फ़ोन पर बातें होती थी। कभी - कभार ऑफिस की छुटियों में कॉफ़ी, बर्गर वगैरह के बहाने भी राहुल उसे बुला लिया करता था, वो चाहता था कि जितनी जल्दी हो सके रुबीना फ़िर से अपने जीवन को जीने लगे .।
ये सिलसिला बढ़ता जा रहा था, लेक़िन राहुल को अब रुबीना का उसके प्रति झुकाव महसूस होने लगा था.;
लड़कियों के साथ ये समस्या पुरानी है, "अगर कोई लड़का ईमानदारी से उनकी हेल्प कर दे या करने की कोशिश करे  तो वो उसे या तो प्रेम समझ बैठती है या फ़िर उस लड़के को दिलफेंक घोसित कर देतीं हैं।"
उसके लिए ये पहली बार नहीं था इसीलिए वो निश्चिंत था। पढाई के दिनों में भी दो-तीन लड़कियों को समझा - बुझाकर इनकार किया था उसने.।
वो सोच रहा था रुबीना भी समझ जाएगी समझाने से।


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✍️ आदित्य प्रकाश पाण्डेय

Wednesday, May 22, 2019

आख़िरी कॉल.। (भाग -1)



आख़िरी कॉल (भाग -1)


फोन रिंग हो रहा था, और उसकी धड़कन जैसे बैठी जा रही थी.! मन ही मन सोच रहा था, के क्या ये आख़िरी बात होगी उससे.? क्या वो फ़ोन रिसीव करेगी.? या फ़िर पिछले दर्जनों फ़ोन कॉल्स की तरह ये भी इग्नोर किया जाएगा.! तमाम बातें उसे अंदर ही अंदर तोड़ रही थी, लेक़िन था वो बेहद ही मज़बूत।
दसियों रिंग्स के बाद फ़ोन वाइब्रेट हुआ एक झटके के बाद उसने खुद को संभाला; फ़ोन रिसीव हो चुका था।
     सामने से आवाज़ आई "हलो"
हमेशा की तरह आज, "बोलो बाबू" से शुरुआत नहीं हुई थी.। ये सुनकर लगभग बिखर गया वो.; लेक़िन ख़ुदको समेटने की कोशिशें करने लगा। फ़ोन के डिस्प्ले से होती हुई दो पतली सी लेक़िन तीव्र धाराएँ माइक्रोफोन के पास निचले कोने पर संगम बना रही थी, और वो बोलने का असफ़ल प्रयत्न किये जा रहा था।
     सामने से अब भी आवाज़ें आ रही थीं.; "हल्लो"  "बोलते क्यूँ नहीं??" "मुँह में आवाज नहीं बची क्या.??"  "बार बार फ़ोन कर के परेशान न करो" "एक छोटा सा का
म क्या बोल दिया सारा प्यार फ़ीका पड़ गया" "क्या हुए वो वायदे..?"

औऱ वो आज अपनी बेज़ुबानी का  कोई कारण भी नहीं बता पा रहा था.! बस निरन्तर बह रही अश्रुधाराओं को मूँछो के आस-पास से हटा रहा था, "गर्मियों में रोने से ये फायदा है कि आँसू पसीने में मिश्रित हो जाते हैं औऱ अचानक किसी के आजाने या देख लेने का भय नहीं रहता.।"
अंततः कैसे भी रुँधे हुए गले को झाड़कर थोडी सावधानी से बोला, "कल से फ़ोन क्यूँ नहीं उठा रहे हो.?? ये आप क्या कर रहे हो सोना.?? क्या अपने रिश्ते को जिंदा रखने के लिए ये अदना सा एक जवाब जरूरी है.??"
बीच - बीच में थक भी रहा था वो, एक - एक शब्द भारी हुए जा रहे थे उसके लिये.! लेक़िन फ़िर ये सोचकर कि उसकी ज़िंदगी का सवाल है, उसके ख़ुशी के लिये खुद को अंदर ही अंदर मार रहा था वो। कैसे भी कर के अपने हिस्से के सवाल पूछ लिए उसने, औऱ फ़िर हमेशा की तरह उस  के लम्बे से जवाब के लिए माइक म्यूट कर के सुनने लगा था.; "वो क्या है कि उसे सुनते रहना अच्छा लगता था न..!"
लेक़िन उसकी आशाओं के विपरीत इस बार एक रूखा सा औऱ कुछ ज़्यादा ही छोटा जवाब मिला, "हमारे बीच बात करने को अब कुछ बचा भी है क्या..??"
.........;
वो स्तब्ध सा बस एकटक सामने वाली दीवार को निहार रहा था, जैसे दीवार के उसपार कुछ छूटा जा रहा हो उसका.। कुछ देर तक फ़ोन लगभग चुप सा रह गया औऱ फिर एक बीप के बाद फ़ोन कट गया..;

वो फ़िर से रो रहा था, लेक़िन मैं जानता हूँ, "बेहद मजबूत है वो.!"


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✍️ आदित्य प्रकाश पाण्डेय

Saturday, May 4, 2019

कहानी : द क्वीन ऑफ़ चेस "लेखक: योगी अनुराग"



कहानी : द क्वीन ऑफ़ चेस

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उसका नाम रहने ही दीजिए न, नाम बताना जरूरी है क्या? “क्वीन” काफ़ी नहीं!

बहरहाल, उसका नाम था : गुंजन।

बड़ी बड़ी काली सफ़ेद गोटियों-सी आखें, चौकोर सा कोमल मुख, आक्रामक भाव-भंगिमाएँ और ढेर सारी बातें। कुलमिला कर ठीक वैसी ही थी मानो संगमरमर के शतरंज की “क्वीन” उठ कर मानव रूप में आ गयी हो!

लड़के के कॉलेज से चार सौ मीटर दूर वाणिज्य संकाय था, माने कॉमर्स फ़ैकल्टी। उस कॉलेज के द्वितीय वर्ष में पढ़ती थी इस कहानी की नायिका “गुंजन”, अव्वल दर्जे की शतरंज खिलाड़ी थी। शायद पूरे विवि की लड़कियों में सर्वश्रेष्ठ!

किंतु गुंजन ने कभी ये न देखा था कि कोई खिलाड़ी अपने कई मोहरे सिर्फ़ आक्रमण की पंक्तियाँ खोलने के लिए मुफ़्त में दे सकता है और अंततः जीत लेता है। कुछ इस तरह लड़के की उस लड़की से भेंट, विवि की शतरंज प्रतियोगिता में हुयी थी। प्रतियोगिता के नॉकआउट राउंड्स में लड़का भी चयनित हुआ और लड़की भी!

ये बात 2011 की है, उन दिनों की, जब वो लड़का मात्र साढ़े सोलह बरस का था!

वो एक प्रतिष्ठित विवि में स्नातक का छात्र, कुलजमा एक माह पहले ही प्रवेश लिया था। अगस्त के मानसून का समय था, जब एसवीएम के वातावरण से निकला पाँच फ़ीट का एक लड़का स्वयं को कॉलेज में ढालने का अभ्यास कर रहा था।

विवि में कुल आठ कॉलेज थे। अभियंत्रिकी, तकनीकी, वाणिज्य, विज्ञान, कला, प्रबंधन, भाषा इत्यादि के भिन्न भिन्न संकायों वाली कॉलेज की बनावट आज़ादी से पूर्व की लगती थी। दीवारों पर सीमेंट नहीं, बल्कि लाल रंग का मोटा पेंट चढ़ा हुआ था, और उसी मोटे आवरण में ईंटों की आकृतियाँ काटी हुयी थीं। देखकर लगता था कि बड़ी मेहनत की है किसी मज़दूर समुदाय ने, वह भी व्यर्थ में।

भला दीवार पर पेंट के उपरांत ईंटों की आकृति बनाने का क्या प्रयोजन? उस लड़के के बालमन में इस तरह के प्रश्नों का ज़ख़ीरा रहता!

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संसार की हर नश्वर चीज़ की भाँति, विवि की शतरंज प्रतियोगिता भी समापन की ओर थी। और एक रोज़ हर चीज़ की तरह समाप्त हो गयी। लड़के ने प्रतियोगिता में प्रथम और लड़की ने तृतीय स्थान प्राप्त किया।

पुरस्कार वितरण के उपरांत गुंजन उस लड़के के करीब आयी और बोली, जानते हो, तुम्हारा नाम हमें बहुत अच्छा लगा। शैक्षिक स्तर में एक बरस सीनियर और तिस पर भी लड़की! उसके शब्द सुनकर लड़का सुन्न हो गया, बस इतना पूछ पाया, क्यों मैम?

गुंजन ने कहा, पहले किसी का नाम था अनुराग अवस्थी, तुम्हारे नाम से उसकी याद आती है। ख़ैर, लड़का उस समय नादान था, कुछ जान सका, तो बस हल्की सी मुस्कुराहट और सहमति के साथ वार्ता समाप्त की, जी मैम।

गुंजन ने बात को और बढ़ाया, कहाँ रहते हो?
“यहीं बॉयज़ हॉस्टल में रहता हूँ, मैम।”

“फ़ोन रखते हो, नम्बर क्या है?”
“नहीं मैम, फ़ोन रखना अलाउ नहीं है ना।”

“ओफ़्फ़ो, तुम तो निरे बच्चे हो, डेट ऑफ़ बर्थ क्या है?”
“छः मार्च, नाइनटीफ़ाइव और आपकी?”

“ट्वेंटी मई, नाइनटीवन है, तुमसे चार साल बड़ी हूँ।”
“जी मैम।”

“कभी मिलना या बात करना हुआ तुमसे तो क्या करेंगे हम?” ,लड़के के पास गुंजन के इस प्रश्न का कोई जवाब न था। वो आगे बोलीं, अपनी मेल आईडी तो दे दो, या हॉस्टल का वाइफ़ाई भी यूज़ नहीं करते?

और अंततोगत्वा, उसी शाम एक प्यार भरा मेल प्राप्त हुआ लड़के को। जिसमें लिखा था, डियर, तुम बहुत स्वीट हो, एकदम छोटे बच्चे जैसे, तुमसे मिलकर बहुत अच्छा लगा, क्या तुम मेरे साथ चेस खेलना चाहोगे? लड़के ने मेल का उत्तर दे दिया, कभी समय मिला तो ज़रूर। एक और मेल आ गया, ऐसा करो कि तुम एक फ़ोन ले लो, और जल्दी से अपना नम्बर मुझे दे दो। उत्तर वही था, नहीं ले सकता मैम, मैं छिपकर भी हॉस्टल के नियम नहीं तोड़ सकता!

"द अलकेमिस्ट" वाले "पॉलो कोएल्हो" कहते थे ना, कि जब क़ुदरत चाहती है तो हर चीज़ उन दोनों को मिलाने में लगा देती है!

वही हुआ। दो दिन बाद ही हॉस्टल में अच्छे स्तर का एक युद्ध हो गया और प्रथम वर्ष के सभी लड़कों को हॉस्टल छोड़ने का नोटिस दे दिया गया। कॉलेज के बाहर रूम लिया तो एक फ़ोन भी ले लिया। अब रूम सिर्फ़ अपना था, साझा नहीं। शतरंज हर वक़्त मेज़ पर बिछा रहता, बेड पर गिटार और माउथऑर्गन रहते।

हर सप्ताह के अंत में गुंजन की आवाज़ों की कीलें दिल में ठुक जातीं और वक़्त यूँ ही गुज़रने लगा। गुंजन कुछ कहती नहीं थी, बस उस लड़के का हालचाल पूछती, उसके बारे में टटोलती और हर पंक्ति में उसका नाम लेती!

और एक दिन वो लड़का सत्रह का हो गया। फ़ोन पर चहकते हुए बोला, मैम, कल मेरा बड्डे है, आप आएँगी ना, एक छोटी सी पार्टी है, बस मैं और आप।

ठंडी आहों के साथ बोली, “वैसे एक बात बताओ, मैं क्यों आऊँ तुम्हारे बड्डे पर?”

इस बार सब बाँध टूट गये। वो लड़का वाक़ई छोटा था, मगर जो भाव अब आ रहे थे, उनसे अपरिचित न था। बॉलीवुड मूवीज़ का गहन अध्ययन था उसके पास, और वो उस सब में दिखाय गये तथाकथित प्रेम को ही प्रेम समझता था।

पहले प्यार की बात ही निराली होती है। इतनी निराली कि “प्रेम” जैसा शब्द छू कर भी नहीं गुज़रा होता। आसमान से गिरे ओले की भाँति श्वेत और निश्कलुष होता है पहला प्रेम।

उस लड़के ने दिल के किसी गहरे भँवर से चार शब्द कहे, मानो बाँध से बंधनयुक्त जल मुक्त हुआ हो : “आई लव यू, गुंजा!”

प्रत्युत्तर में लम्बा सा भाषण सुनने को मिला, बच्चों जैसी बातें हैं अभी तुममें, तुम जानते भी हो प्यार का मतलब क्या होता है? प्यार बस एक धोखा है लड़के, बस एक धोखा। प्यार करते हो तो कहो मत, सिद्ध करो!

इस विवाद के बाद जो बातों का सिलसिला रुका, गिटार के स्वरसंघात ही समय के उलझे धागों को काटने का प्रयत्न करते और लड़के के आसपास के रूम में रहने वालों को प्रतिदिन एक नया-सा संगीत सुनने को मिलता। वो लड़का बस उन तारों को मींजने में अपना वक़्त देने लगा।

वो लड़का आज के जितना समझदार होता तो एक ख़ूबसूरत पत्र लिखता और उसमें कहता : “प्रिय गुंजा, मैं जयशंकर प्रसाद से अधिक ख़ुशनसीब हूँ, वे कहते हैं ना कि जीवन की गोधूलि में कौतूहल से तुम आए। लेकिन मैं ये नहीं कहूँगा, मैं कहूँगा कि जीवन की ऊषा में ही किरणों सी तुम हो छाई!”

लेकिन ये होना न था, तो नहीं ही हुआ। इक्कीस मई को कॉल आया, बोलीं, जानते हैं हम तुम्हारा स्वाभिमान, चाहे जो हो जाए, चाहे हमारा बड्डे हो, मगर कॉल तो करोगे नहीं। लड़के ने कहा, सॉरी मैम, भूल गया था। बोलीं, हमको न, बेवक़ूफ़ न बनाओ, सब पता है कि तुम क्या सब करते रहते हो आजकल, देवदास हो गये हो, और हाँ अब हमें मैम न कहो, गुंजा ही कहो!

लड़के ने भारीपन से कहा : “हैपी बड्डे, गुंजा!”

मगर उन्हें इतने में संतोष न था। बोलीं, मिलना है तुमसे, रूम से बाहर भी निकला करो कभी। लड़के ने कहा, मैं अपने घर आ गया हूँ मैम, कॉलेज ऑफ़ हो गये ना कल।

बातों का सिलसिला फिर चल निकला। अब बातें हफ़्ते में एक बार नहीं, बल्कि दिन में दो दो बार होने लगीं। और धीरे धीरे पुन: वही समय आ गया, विवि की शतरंज प्रतियोगिता!

और इसके बाद दो हज़ार बारह का अंत आ गया। वर्ष के अंत में लड़के की एक उपलब्धि ये रही, कि वो लखनऊ में आयोजित देश का सबसे बड़ा शतरंज टूर्नामेंट खेलने के लिए क्वालिफ़ाई कर गया और सफलतापूर्वक खेल कर भी आया। हालाँकि कोई रैंक नहीं मिली, किंतु आरंभिक स्तर पर ये एक उपलब्धि ही थी।

और दो हज़ार तेरह की शुरुआत उस लड़के की ज़िंदगी में मोहब्बत की ओस लेकर आयी। गुंजन का प्रेम बढ़ता गया और वो एक बोली, चली, तुम्हारे रूम पर चलती हूँ। लड़के ने अटकते हुए कहा, नहीं, रहने दो आप, सब गंदा पड़ा होगा, सामान बिखरा हुआ। तिस पर वो बोली, तो क्या हुआ, मैं सब ठीक कर आऊँगी। और वो रूम पर आ गयीं।

बोलीं, सुनो, पता नहीं तुम इस बात को समझते हो या नहीं, लेकिन मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ। और इतना कर कर वो लड़के से लिपट गयीं। लड़के को जनवरी में बारिश का एहसास हो रहा था। कुछ देर बाद जब बादल छँटे तो इंद्रधनुष की भाँति गुंजन की फ़रमाइश गूँजी, कोई गाना सुनाओ ना, गिटार के साथ।

लड़के के पास “ना” कहने की कोई वजह न थी, तो रंगीन भरा एक गाना गूँज उठा : “एक लड़की भीगी भागी सी...”

गाना ख़त्म न हुआ कि गुंजन ने फिर से लड़के को बाहों में ले लिया और सुबकते हुए बोली, तुम भी तो मुझे छोड़कर नहीं चले जाओगे? लड़का स्थितप्रज्ञ था, बोला, कभी नहीं। और अगर मैं ही तुम्हें छोड़कर चली गयी तो, तो मैं जी नहीं पाऊँगा गुंजा। इन पंक्तियों के बाद एक निर्विकार शांति छा गयी।

अगले ही रोज़ से लड़के के स्वभाव में नमी आ गयी थी। “सी” प्रोग्रामिंग की क्लास में, बीच से ही खड़ा हुआ और बोला, मे आई गो सर? सर ने कहा, फ़ॉर व्हाट? लड़का बोला, इट्स समथिंग अर्जेंट, सर।

और ये सब रोज़ होने लगा। होता कुछ यूँ था कि गुंजन के कॉलेज का इंटरवल लड़के से दस मिनट पहले हो जाता था। तो लड़का उन दस मिनटों को खोना नहीं चाहता था और दोनों साथ साथ लंच करते।

और एक दिन वो लड़का अठारह का हो गया। पिछले दो हफ़्ते से न तो गुंजन का कोई कॉल था और न कोई संदेश, और ना ही कॉलेज में कोई भेंट हुयी थी। अन्यमनस्क भाव से लड़के ने कॉल लगाया, फ़ोन हमेशा की भाँति स्विच ऑफ़ था।

ना कोई जन्मदिन का उत्साह और न मताधिकार मिलने का कोई उत्सव, बस गिटार के तार “इंतहा हो गयी, इंतज़ार की” गाने को संगीत का आधार देते रहे।

करीब एक हफ़्ते के बाद, वो फ़ोन पिक हुआ। उधर से एक भारी आवाज़ थी, किसी लड़के की भारी आवाज़।

“हैलो, गुंजन मैम से बात हो जाएगी?”
“कौन बोल रहे हैं?”

“जी मैं उनका जूनियर हूँ, कॉलेज में।”
“उन्हीं की क्लास में हो?”

“जी नहीं, मैं दूसरी फ़ैकल्टी का हूँ।”
“ओह, अच्छा, इसलिए जानते नहीं उनके बारे में, आठ मार्च को इस दुनिया से चली गयीं गुंजन दीदी, उनसे बात न हो सकेगी।”

कहते कहते फ़ोन के उस पार वाले लड़के का गला भर आया और इस पार वाले लड़के की आँखें। फ़ोन काट कर, निस्तेज होकर ज़मीं पर ही बैठा गया वो लड़का, मानो गुंजन के पैरों के स्पर्श वाले फ़र्श की निकटता चाहता हो, मानो जहाँ गुंजन बैठी थी, बेड के उस हिस्से पर अपना चेहरा रख कर रोना चाहता हो।

और सहसा उसने हाथ में लगे गिटार के तारों को निर्ममता से खींच दिया, मानो हथेली में तारों की धार से कोई नई लकीर निर्मित करना चाहता हो, जिसमें नाम लिखा हो : “गुंजन”।

लेकिन हथेली से कोई नाम नहीं, बस रक्त और रक्त निकला। गिटार के फेंके जाने का शोर सुनकर आसपास के मित्र आ गये और लड़के ने आँसू पोंछ कर, हथेली के घाव को दबाते हुए एक मित्र से कहा : “मैं यमुना के घाट घटिया जाना चाहता हूँ, घटिया शमशान।”

और फिर वो गिटार की धुन उस कल-कल नदी की आवाज़ के साथ रुख़सत हो गयी। बस रह गया तो शतरंज और मोहरे, जिन्हें एक बार कॉलेज के रेत में बिखर जाने पर अपनी उँगलियों से उठाया था गुंजन ने। आज भी वो लड़का उन मोहरों को अपने पास रखता है, अपने हृदय के निकट!

इति।


©

✍️  Yogi Anurag

Wednesday, December 12, 2018

"दो दीवानें" ग़ज़ल


        

               "दो दीवाने"


जमाने भर को "ख़ुदारा" क्या कोई काम नहीं?
हमारे "इश्क़" के पीछे ही पड़े रहते हैं!


जहाँ भी जाती है, लाचार ये नजरें मेरी,
कुछ नजऱ ताक में मेरी ही गड़े रहते हैं।।


कौन समझाए इन "बेदर्द बेदिमाग़ों" को,
यूँ न, हर वक्त अपनी जिद्द पे अड़े रहते हैं।।


आँधिया आती है आयेंगी, नसीबा जाने!
"दो दीवाने" हमेशा साथ खड़े रहते हैं।



✍🏻 

©आदित्य

Sunday, September 9, 2018

"हैरान मेरा अक्श"



हर वक्त मेरा "अक्श" भी हैरान रहता है..!
🤔
कैसे ये अपनी बात यूँ बेबाक कहता है...??


क्यूँ, तनिक न डिगा मार्ग से आये हजारों गम..??


दरिया के "नीर" सा है, निर्बाध बहता है..!


"कैसे ये अपनी बात यूँ बेबाक कहता है...."

✍🏻

आदित्य प्रकाश पाण्डेय


Wednesday, August 1, 2018

"अपनों जैसे गैर"



अपनों जैसे गैर!



नोट:- ये विस्तृत कहानी नहीं है बाकी के कुछ भाग अभी भी डायरी में पड़े हुए हैं!

◆◆◆◆◆◆◆◆  

ये दसवीं की वार्षिक जाँच परीक्षा का समय था।

अब धीरे-धीरे हमलोग भी बदलने लगे थे ; 
हमारी आवारगी अब जिम्मेवारियों के दबाव में आने लगी थी। आगे की जिंदगी का फ़ैसला लेना और बाकी चीजों के लिए भी अब समय देना होता था।

अगर कम शब्दों में लिखें तो, "अब हमलोग मेच्योर होने लगे थे।"

हाँ तो , जाँच परीक्षा का पहला दिन था।
12वीं की नई बिल्ड़िंग में बैठे हुए सभी पढ़ाकू लड़के-लड़कियों में अचानक हमारी एंट्री हुई। पेपर कॉपी बांटी जा चुकी थी और हमलोग पहले ही दिन लेट हो गए थे। सबलोग ऐसे देख रहे थे जैसे हंसो के बीच कुछ कौवे घुसने लगे हो।

लेकिन एक चेहरा सबसे इतर हमे करुणा की भावना से निहार रहा था, जैसे अगर उसके बस में हो तो अभी लिखी-लिखाई कॉपी हाथ मे दे दे😊

गोरे से गोल चेहरे पर दया का भाव झलक रहा था और चेहरा लाल हुआ जा रहा था।
मैं खाशा आकर्षित हुआ।
क्या पता वो पहले स्कूल आती थी या नहीं लेकिन हमने तो उन्हें पहले नहीं देखा था।
और हाँ पहली बार किसी लडक़ी के चेहरे पे नज़र रख के छोड़ दिया था🙃

खैर हल्की डांट-फटकार के बाद हमे भी कॉपी-पेपर के दर्शन हुए!

और फिर अपनी चिर - परिचित लास्ट बैंच की ओर रुख कर गए हमलोग।
        बाकी बच्चे तो ऐसे लगे थे जैसे IAS बन जाएंगे इसी लिखने से , लेकिन हम सब जानते थे ।
अरे इन्हीं कॉपीयों से रोज मुलाक़ात हो जाती थी शाह जी के भुजा वाले ठेले पर और पुल पर पकौड़ी खाते हुए।

खैर, मेरे पास तो एक वजह और मिल गई थी पेपर न लिखने की जैसे-तैसे उनको निहारते हुए मैंने भी कुछ हल्का-फुल्का लिखा.!
और जमा होने का इंतिजार करने लगा।

शायद उन्होंने भी मेरी मनोदशा को भाँप लिया था! और कभी- कभी मेरी चोर नज़र की चोरी भी पकड़ ली जाती थी, ये बात और है कि अब जाके एहसास होता है कि आखिर वो क्यूँ देखती थीं हमारी ओर।

सारा हाल उसी दिन मैंने राहुल को बता दिया; और शायद ये मैंने गलत किया।
लेकिन आखिर करता क्या वो मेरे सबसे क्लोज जो था!

अब रोज उनका मुझे देखना और मेरा उन्हें देखना इसी क्रम में चलता रहा।
आख़िर लास्ट पेपर के दिन राहुल ने ही प्लान किया कि  भाई नम्बर दे देते हैं। 
वैसे भी बोलना मेरे बस में था नहीं। तो हमने एक चिट पे नम्बर लिखा और उनकी हाई बेंच के फाँके मे दबा दिया इससे ज्यादा कुछ करने की हिम्मत नहीं हुई और हमलोग बाहर निकल आये।

एग्जाम बीत गया और स्कूल की भी छुट्टी हो गई। कुछ दिन तक ट्यूशन भी चला लेकिन अब भी उनका व्यवहार बिल्कुल वैसा हीं था। मुझे तो कभी - कभी शक़ होता था कि वो चिट इनको मिला या नहीं।

लेकिन शायद 6-7 रोज बाद शाम को मेरे फोन पे एक नए नम्बर से कॉल आया उस जमाने मे तो truecaller जैसा कुछ था नहीं और हमारे पास फोन भी ऐसे होते थे कि सामने वाला देख के मुँह बना लेता था; नोकिया 2700 क्लासिक को छप्पन जगह से चिपका के कैसे भी काम चलाना पड़ता था।

हाँ तो, फोन पे वो हीं थी उनके बोलने के लहजे से ही प्रतीत हो गया था!
पहली बार किसी लड़की के सवालों का जवाब देना था मुझ जस गँवार आदमी को।
पहले उन्होंने हिंदी में बतियाना शुरू किया लेकिन बहुत जल्दी ही भाँप गए कि मैं थोड़ा असहज महशुस कर रहा हूँ।
और फिर अपनी भोजपुरी जिंदाबाद!

कुछ तीखे सवालों का जवाब देने के बाद ही नॉर्मल बातें शुरू हुई।
और वहीं एक दूसरे को जानने समझने का दौर। बातचीत के दौरान ही मालूम हुआ कि फोन उनकी माताजी का था और उधर से मिस्ड कॉल आने पर ही कॉल बैक करना था।
पूरे 12 मिनट के लगभग बात हुई उसदिन।

फिर कभी कभी दिन में एक - दो बार बात हो जाती थी।
बोर्ड एग्जाम्स की तैयारियों की वजह से हमलोग ज्यादा ध्यान पढ़ाई में हीं दे रहे थे।

और फिर परिक्षा काफी करीब आ गई और हमारी बातचीत को हमने रोक लगा दी कुछ दिनों के लिये।

उनका सेंटर कमला राय महाविद्यालय गोपालगंज था शायद।

 परिक्षा के दौरान उन्होंने एक दो बार बात की थी बस पूछने को की पेपर कैसा गया। 

परीक्षा बीत गई और कुछ दिन की छुट्टी मिली हमें इस दौरान हमलोग काफ़ी घुल-मिल गए।

रोज बात हो जाती थी उनसे बस ऐसे ही दो महीनें गुजर गए और कुछलोग आगे की पढ़ाई के लिए गोपालगंज जाने लगे, जिनमे मैं भी था।

फिर बंजारी ब्रह्न स्थान के करीब का वो मोहल्ला और पंडित जी के मकान का वो कमरा और कुछ पुराने दोस्त, यहीं हो गई थी जिंदगी।
उस समय गोपालगंज ही ज्यादा दूर परदेश जैसा प्रतीत होता था और हर शनिवार को घर भाग जाते थे हमलोग! "खैर ये भी एक लंबी कहानी है फिर कभी लिखूँगा।"

हाँ तो मुद्दे पे आतें हैं।
बात उनसे अब भी प्रतिदिन होती थी या फिर ऐसा समझिए कि अबतक सबकुछ सही था।

वो आगे की पढ़ाई भी मिश्रा सर के यहाँ ही कर रही थी ।
और कुछ लोग और रह गए थे अपने टीम से वो भी वहीं ट्यूशन लेते थे और शायद उनका ये फैसला सही था।

मैंने Gopalganj आके जो पाया वो तो मेरी आत्मा जानती है; लेकिन जो गंवाया आप उससे परिचित हो जाएंगे इस कहानी के जरिये।

हाँ तो हमारी बातचीत ऐसी ही चलती थी फिर अचानक उनकी बातों में राहुल का जिक्र आने लगा,

"पता है आज आपके मित्र मुझे घूर रहे थे बहूत देर तक"
"पता है आज ये हो गया, वो हो गया वग़ैरह"
और मैं सभी बातोँ का बस एक ही जवाब देता था , "राहुल बहुत अच्छा लड़का है! मैं उसके बारे में गलत सोच ही नहीं सकता"

और मेरी ओर से महाशय के शान में तारीफों के पूल बांध दिए जाते थे! 
अरे मुझे क्या मालूम था कि किसी दिन इसी पूल से मेरा जिगरी दोस्त मेरी ही 💕💕 को लेकर फरार हो जाएगा🤕

और धीरे - धीरे बातें बदलने लगीं, "अब बातें मुझसे होती थी लेकिन इनके बारे में"

लेकिन मैं अब भी आने वाले खतरे से बेख़बर था । 
हाँ ये वो समय था जब मुझे गाँव से लोकल इनपुट्स द्वारा जानकारी मिलने लगी थी कि "आजकल राहूल भाई भाभी से ज्यादा ही करीब होने लगे हैं।
और मैं मूरख ये समझता था की सबकुछ मेरे वास्ते हो रहा है।

लेकिन अब धीरे धीरे उनकी बातों से लगने लगा था कि कुछ तो गड़बड़ है।
फिर उन्होंने बोला कि उनके पास फोन नहीं रहेगा कुछ दिन तक बात नहीं हो पाएगी, मेरे लिए कुछ मुश्किल था लेकिन नामुमकिन नही। मैनें भी हामी भर दी, मुझे क्या मालूम था कि ये उनसे आखिरी बातचीत है ।
उन्होंने भी एहसास तक न होने दिया कि ये रिश्ता अब टूट चुका है।

खैर लगभग 20 दिन बाद विश्वस्त सूत्रों ने जानकारी दी कि आजकल उनको राहुल बाबू घुमा रहे हैं।

सुनकर थोड़ा असहज लगा लेकिन अजीब नहीं,
बस इस बात का मलाल था कि मान लिया वो तो गैर लड़की थी जिससे मेरा कुछ दिनों से ही रिश्ता था लेकिन ये तो दोस्त था मेरा😔

हाँ इस बाबत राहुल के ओर से पहली सफ़ाई तब मिली जब हमलोग एक दोस्त के यहाँ निमंत्रण में मिश्र सोनहुला गए हुए थे।
उनकी आँखें सब बयाँ कर रहीं थी ,  मैंने भी कुछ ज्यादा कुरेदा नहीं बस बात को वहीं बन्द किया और ख़ुश देखने की तमन्ना जाहिर कर आये।

फिर इस बाबत कोई बात ही नही  हुई राहुल से।
हाँ ये बात और है कि ये लोग लगातार रिलेशनशिप में रहे।

अभी कुछ दिन पहले मालूम हुआ कि उनकी शादी हो गई है, और मेरा भाई बिन ब्याहे बिदुर हो गया😳

कूछ अफशोस और हल्का गुस्सा आता है अब।
"अगर तेरे से कुछ होना नहीं था तो फिर.......😡"

"ख़ैर कुछ भी हो भाई है तू मेरा💞"

(कहानी पूरी तरह से वास्तविकता को परोसने की कोशिश का नतीजा है; इसीलिए कुछ त्रुटियाँ मिलेंगी इसीलिए आप सभी से क्षमाप्रार्थी हुँ)

(ऐसा भी नही है कि मैं बहुत संस्कारी बच्चा हुँ!राहुल ने जो भी किया इसमे उसकी कोई गलती नहीं मानता मैं! और हाँ वास्तव में राहुल एक अच्छे दोस्त के साथ-साथ मेरा भाई भी है और मुझे गर्व है ऐसे भाई पर)

***सभी पात्र पूर्णतः काल्पनिक हैं!!

©©
✍ आदित्य प्रकाश पाण्डेय

Saturday, May 26, 2018

"किसी का नाम लो जिसको, मोहब्बत रास आई हो.!" (अंतिम भाग)



किसी का नाम लो जिसको.....

[ भाग - 8; अंतिम भाग ]

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मैंने थरथराते हाथों से उसे खोला. डर लग रहा था कि फट न जाए. लिखा था...


           “मेरे मन मंदिर के देवता! मैं आपके चरणों की दासी बनने योग्य नहीं हूँ. मेरी आराधना अभी अधूरी है. मेरी पूजा सच्ची नहीं है. तभी तो मैं आपको पा न सकी. मेरा यह जीवन अकारथ हुआ. जन्म – जन्म से आपको पाने की तपस्या इस जन्म में भी सफल न हो सकी. मैं तपस्या करती रहूँगी पर मंजिल अभी दूर है. मेरे सर्वस्व! मेरे प्रिय! मेरे पति! मैं आपकी हूँ और आपकी रहूँगी! लेकिन मैं आपका जीवन संकट में नहीं डाल सकती. आपको कुछ हो इसके पहले मैं खुद को मार डालूँगी. और यदि पापा ने अब कुछ सुना तो आपको जिन्दा नहीं छोड़ेंगे. उस दिन भी आप मिले नहीं तो बच गए. और फिर मम्मी ने मना लिया कि यदि दुबारा कुछ हो तभी कोई कदम उठायें. सो मेरी बात मानिए और यहाँ से जल्दी कहीं दूर चले जाइए. इस जनम में मिलना संभव नहीं और माता – पिता का मन दुखा कर मैं कुछ पाना भी नहीं चाहती. मेरे गले में शादी के नाम पर फांसी का फन्दा कसा जा रहा है और अगर मैंने इनकार किया तो सीधा इसका मतलब होगा आपकी मौत. मेरा शरीर दूसरे के हवाले करने की तैयारी हो चुकी है. 

अतः आपको कसम है. न आप मेरी राह में आयें, न मिलें, न कोई पत्र आदि लिखें. समझ लीजिये, मैं अब इस संसार में नहीं रही.
             सिर्फ आपकी जो आपकी न हो सकी.
                                      मधु”

            पत्र को पुनः तह करते समय मेरी एक गहरी सांस निकल गयी. मैंने पत्र और तस्वीर उन्हें वापस किया. उन्होंने दोनों चीजें लेकर फिर बटुए में रख लिया. मुझसे बोले – “सर! एक बार वो शेर दुहरा दीजिये!” मैं कुछ कहने सुनने की स्थिति में नहीं था. मैंने पूछा  – “कौन सा?” 


           “वही... किसी का नाम लो...”


           मैंने भारी मन से दुहरा दिया –


            “मैं मान लूंगा कि मुझमें कमी रही होगी,

मगर,
    किसी का नाम लो जिसको मुहब्बत रास आयी हो!”


           पर यदि उन्होंने मुझसे मेरे मन का कोई मेरा शेर कहने को कहा होता तो शायद मैं कहता -            "खुदा की इतनी बड़ी कायनात में मैंने,
           सिर्फ एक शख्स को माँगा, मुझे वही न मिला!"


           पर मैंने कहा नहीं.!


           उन्होंने अपनी आँखें पोछीं और पुछा – “कब पोस्ट करेंगे इसे?” 
           जी में आया कहूं – “मैं तो सिर्फ कहानियाँ लिखता हूँ दोस्त. तुमने तो इसे जिया है.” 

पर मेरे मुंह से निकला – “देखते हैं”.
..................................................             ..................................................



[ कहानी पूर्णतः काल्पनिक है और किसी भी व्यक्ति के जीवन से इसकी घटनाओं का मिलना मात्र एक संयोग है. ]


©©


Friday, May 25, 2018

"किसी का नाम लो जिसको, मोहब्बत रास आई हो.!" भाग :- 7



किसी का नाम लो जिसको...


[ भाग - 7 ]

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क्या वह बेवफा निकली?


           कुछ दिन बाद कॉलेज में मेरे नाम डाक से एक पत्र आया. अनुमान से भी और राइटिंग से भी लग गया कि यह मधु का ही पत्र है. सोचा जैसे का तैसा उसे वापस कर दूं. पर दिल के हाथों बेबस था. कुर्सी पर बैठा. चपरासी से एक गिलास पानी मांग कर पिया. ख़त खोल कर पढने लगा. 


           मधु ने अपना दिल खोल कर रख दिया था.
           अब मेरा मन बिलकुल नहीं लग रहा था. हर ओर एक उदासी के सिवा कुछ भी न था.
           कुछ दिन बाद पता चला उसकी शादी किसी इंजीनियर से तय कर दी गयी है. बोर्ड परीक्षाओं से पहले ही एक बड़े से मैरेज हॉउस में उसकी शादी हो गयी. मैं एक पागल की मनःस्थिति में आ गया था. क्लास लेते लेते मैं भूल जाता कि मैं क्या पढ़ा रहा था. खुद पर तरस आ रहा था. 
           कुछ दिनों बाद मधु फिर कालेज आने लगी थी. पर अब मैं क्लास में भी उसकी ओर देखने की हिम्मत नहीं कर पाता  था. वह भी किसी पेरे गए गन्ने की तरह लगती. अगर कभी हमारी निगाहें मिल भी जातीं तो हम विवश इधर उधर देखने लगते. और फिर हमें अपनी आँखें पोंछनी पडतीं.
           किस्मत ने चोट तो बहुत गहरी दी थी, पर शायद उसे कुछ रहम भी आ गया. शुरू में जो कुछ अर्जियां और इंटरव्यू दिए थे उनमे एक केमिस्ट के पोस्ट के लिए मेरा चुनाव हुआ था, पर रिजल्ट किसी आरक्षण के मुकदमें के चलते लंबित था. अब उसका रिजल्ट निकला था और मैं सेलेक्ट हो गया था. मैंने इस्तीफा देना चाहा तो प्रिंसिपल ने सेशन की बात कहते हुये इस्तीफा वापस कर दिया. पर अब मैं वहाँ नहीं रुक सकता था.
           सबने मुझे फेयरवेल दिया. सभी उदास थे. वे अध्यापक महोदय भी जिन्होंने उसका ख़त बरामद कराया था. अंत में मुझसे कुछ कहने को कहा गया. पर मैं कुछ बोल नहीं पाया.  मेरा गला रुंध गया और फिर चारो ओर सिसकी सी गूँज उठी. मैंने अपना बोरिया बिस्तर समेटा और यहाँ ज्वाइन कर लिया. आते समय मैंने मधु को देखा था. उसने उस दिन वही साड़ी पहनी थी, जो पहन कर वह होटल में आयी थी.
         
 बस. यही थी मेरी कहानी. आप इसे चाहे जैसे सजाएं-सवारें पर बस हम दोनों का असली नाम न दें|


           "और आपका परिवार?" मैंने जिज्ञासा की.


           "तीन दिनों में जो लगभग सोलह घंटे उसके साथ बिताये, वे इस ज़िन्दगी के लिए काफी हैं सर! मैं जो प्रेम प्याला पी चुका अब उसके बराबर का कोई मिलने से रहा. दुबारा ज़िंदगी मिलती है या नहीं कौन जाने? पर इस ज़िंदगी में तो मेरे लिए वे सोलह घंटे काफी हैं."
          

 पार्क में अँधेरा और सन्नाटा दोनों पसर चुका था. उन्होंने फिर एक सिगरेट जलाई. मैंने तीली की रोशनी में देखा उनकी आँखों में कुछ तारे झिलमिला रहे थे. कश खींच कर उन्होंने अपना पर्स निकाला और एक सात बाई दस सेमी की तस्वीर निकाल कर अँधेरे में ही मुझे पकड़ा दी, फिर एक अंतर्देशी पत्र भी. पर वहां इसे देखना पढना संभव नहीं था. हम पार्क के बीच लगी नियोन लाईट तक आये. तस्वीर देख कर मुझे भी झुरझुरी आ गयी. बेहद मासूम एक लडकी जिसकी आँखें जैसे बोल रही हों, तस्वीर से झाँक रही थी. कोई भी इसे देख कर काबू में नहीं रह पाता. मैंने अंतर्देशी उन्हें वापस करनी चाही. वे बोले – “कोई बात नहीं. पढ़ लीजिये”.
           मैंने थरथराते हाथों से उसे खोला. डर लग रहा था कि फट न जाए. लिखा था......,



अंतिम भाग यहाँ से पढ़े:-

Thursday, May 24, 2018

"किसी का नाम लो जिसको, मोहब्बत रास आई हो.!" भाग :- 6



किसी का नाम लो जिसको...


[ भाग - 6 ]

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उन्होंने मुझसे बात करने से इनकार कर दिया.


           बहुत अपमानजनक स्थिति थी. पहले सोचा रेजिग्नेशन दे दूं. पर नौकरी छोड़ना इतना आसान नहीं था. कमरे पर आ कर चक्कर काटता रहा.

             उसके पापा तक बात पहुंचे उसके पहले उन से साफ़ साफ़ कहने का मन हुआ. सोचा कि बता दूं कि मैं मधु से शादी करने को तैयार हूँ. यही मेरे हिसाब से सबसे उचित था. मधु जैसी लडकी मिल जाना भी एक किस्मत की बात थी और सबके मुंह भी बंद हो जाते. 

कपडे पहन कर निकला पर हिम्मत टूट गयी. जाने क्या सोचेंगे? बड़े लोग हैं. लेट कर परिस्थिति पर विचार कर रहा था कि आँख लग गयी.

                रात के नौ बज रहे थे. दरवाजे पर दस्तक हुई. पड़ोस वाले सज्जन थे. जल्दी से मुझे घसीटते हुये बाहर लाये, कमरे पर ताला डाला, और मुझे ले कर अपने घर में घुस गए. उनकी पत्नी कुछ पूछें इसके पहले उन्होंने उन्हें चुप रहने को कहा और बताया कि मधु के पापा कुछ लोगों के साथ मोहल्ले के बाहर नीम के नीचे अँधेरे में खड़े थे, और कह रहे थे कि उस मास्टर को जिन्दा मत छोड़ना. फिर मेरे कमरे पर कुछ लोग आये. मेरे बारे में पूछ-ताछ की. मुझे घर में छुपा कर वे सज्जन बाहर निकले और बताया कि मास्साब तो शाम को ही गाँव चले गए.
           
कुछ अता-पता ? 
           नहीं साहब. हमें किसी के गाँव घर से क्या लेना? पर आयेंगे ही. आप फिर आ जाइएगा. 
           बच कर निकल गया साला.
           मैं सुन रहा था. 
           आवाजें शांत हो गयीं.
           दो चार दिन तक मेरे कॉलेज के कुछ टीचर्स और अन्य लोगों ने प्रयास कर के मामले को ठंढा कर दिया. मैं फिर कॉलेज जाने लगा. पर मधु का स्कूल आना बंद था. मुझे लगता कि सबकी आँखें मुझपर ही टिकी हैं. लगता कि क्लास में स्टूडेंट्स सर झुकाए मुझ पर मुस्कुरा रहे हैं.
           कुछ दिनों बाद मधु भी कॉलेज आने लगी. उसका रंग उतर गया था. जैसे किसी लम्बी बीमारी से उठने के बाद होता है, 

वैसे, दिन में तो समय कट जाता था पर रात बहुत भारी पड़ती थी. ज़िंदगी में पहली बार प्यार किया, और वह एक गहरा दर्द दे गया. लगता कि ज़िंदगी लुट गयी है. बस गम था. बेइन्तेहाँ गम. 

                एक दिन रात को मैंने दिल उड़ेल कर एक लंबा ख़त लिखा. अब प्रतीक्षा नहीं हो पा रही थी. उसकी टास्क की कॉपी में रख कर उसे आपने हाथ से दिया.
           लैब में आ कर बैठा ही था कि पीछे से मधु आ गयी. मेरा ख़त उसने कांपते हाथों से मुझे पकड़ाया और तेज़ कदमों से लौट गयी. मन में जोर से कसक उठी. 

क्या वह बेवफा निकली???


भाग :- 7

Wednesday, May 23, 2018

"किसी का नाम लो जिसको, मोहब्बत रास आई हो" भाग :- 5




किसी का नाम लो जिसको....


[ भाग - 5 ]

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सब सो रहे हैं पर मैं तब से बैठी हूँ. हेलो! आप ही हैं न सर! हेलो!”


           मेरे जिस्म में एक सुरसुरी दौड़ रही थी. मैंने होटल के कार्ड से पता बताया. 
           “आप वेट कीजिये सर! मैं अभी पहुँचती हूँ.” 
           मैंने फ़ोन काटा, पैसे दिये और किस्मत को धन्यवाद देते हुये होटल लौट आया.


           पौन घंटे बाद मेरे कमरे के दरवाजे पर नॉक हुई. जो लडकी अन्दर आयी वह वह मधु नहीं थी जो मेरे क्लास में पढ़ती थी या जिसे मैं ट्यूशन पढाता था, या जिसे मैं जानता था. 

यह कोई दूसरी ही मधु थी. सजी – संवरी. मैंने उसे अब तक सलवार सूट में ही देखा था. आज उसने कामदार साड़ी पहनी थी. वह बड़ी लग रही थी, भव्य लग रही थी, सुन्दर तो बहुत लग रही थी. अन्दर आकर उसने कमरा अन्दर से बंद कर दिया.
           वह खिली – खिली थी और मन-मगन. पहली बार हम एकांत में मिले थे. उसके पास बहुत सी बातें थी. मैं चुप चाप सुन रहा था और उसे देख रहा था. उसने बताया कि वह इवनिंग शो का बोल कर आयी है. हमारे पास दस बजे तक का समय था.


           मैंने चाय मंगाई. चाय पी कर वह बिस्तर पर लेट गयी, निःसंकोच. वह एक तने हुये धनुष की तरह लग रही थी. उसके नेत्रों में बेपनाह आमंत्रण थे. किन्तु वे आमंत्रण नितांत सहज थे. मैं अपराध बोध महसूस कर रहा था. मैं खुद को उससे कमजोर महसूस कर रहा था. 

पहले मेरा विचार था कि कमरे में ही वक़्त बिताया जाए, किन्तु अब मुझे बाहर निकलना ही उचित लगा.
           हम बाहर आये. एक अनबूझ प्यास से गला सूख रहा था. मैंने कोकाकोला पीने का प्रस्ताव रक्खा. दो - दो बोतल पीने के बाद कुछ प्यास कम हुई. मैं आशंकित था किन्तु वह एकदम सहज थी. मुझे लगा, वह जाने क्या सोच रही होगी मेरे बारे में. 

एक रिक्शा कर के हम हजरतगंज पहुंचे. हम साढ़े नौ बजे तक खूब घूमे. खूब बातें कीं. मेरे लिए वह एक ज़िंदगी का शानदार दिन था. कम से कम उस दिन मुझे यही लगा था.
           मैं तीन दिन वहाँ रहा. वह तीन दिनों तक रोज आती रही. और इन तीन दिनों में हमने एक दूसरे को पूरी तरह पा लिया.  
           स्कूल खुले तो वह सेकंड ईअर में आ गयी थी. और हम पहले से अधिक खुल गए थे. वह अकसर लैब में आ जाती. हम बातें करते रहते. 

पर यह लोगों की नज़र में आ गया था. एक दिन मैं लैब में नहीं था. उसने मेज की दराज में एक लंबा सा ख़त डाल दिया और चली गयी. लैब बॉय एक नया छोकरा था जो बेहद शातिर था. उसने स्टाफ रूम में आ कर सबको बता दिया. सबको सांप सूंघ गया. वहाँ वह अध्यापक महोदय भी थे, जो मधु को पहले ट्यूशन पढ़ाते थे. वे सीधे प्रिंसिपल के पास पहुंचे, और प्रिंसिपल, वाइस प्रिंसिपल के साथ जा कर लैब के मेज की दराज से ख़त बरामद करा दिया. 

मैं क्लास ले रहा था. मेरे पुराने चपरासी ने आकर बताया. मैं लैब की ओर भागा. पर बात हाथ से निकल चुकी थी. मैं देर तक सन्नाटे में रहा. फिर मैंने प्रिंसिपल से बात करनी चाही. उन्होंने मुझसे बात करने से इनकार कर दिया...;




भाग :- 6