आख़िरी कॉल (भाग -1)
फोन रिंग हो रहा था, और उसकी धड़कन जैसे बैठी जा रही थी.! मन ही मन सोच रहा था, के क्या ये आख़िरी बात होगी उससे.? क्या वो फ़ोन रिसीव करेगी.? या फ़िर पिछले दर्जनों फ़ोन कॉल्स की तरह ये भी इग्नोर किया जाएगा.! तमाम बातें उसे अंदर ही अंदर तोड़ रही थी, लेक़िन था वो बेहद ही मज़बूत।
दसियों रिंग्स के बाद फ़ोन वाइब्रेट हुआ एक झटके के बाद उसने खुद को संभाला; फ़ोन रिसीव हो चुका था।
सामने से आवाज़ आई "हलो"
हमेशा की तरह आज, "बोलो बाबू" से शुरुआत नहीं हुई थी.। ये सुनकर लगभग बिखर गया वो.; लेक़िन ख़ुदको समेटने की कोशिशें करने लगा। फ़ोन के डिस्प्ले से होती हुई दो पतली सी लेक़िन तीव्र धाराएँ माइक्रोफोन के पास निचले कोने पर संगम बना रही थी, और वो बोलने का असफ़ल प्रयत्न किये जा रहा था।
सामने से अब भी आवाज़ें आ रही थीं.; "हल्लो" "बोलते क्यूँ नहीं??" "मुँह में आवाज नहीं बची क्या.??" "बार बार फ़ोन कर के परेशान न करो" "एक छोटा सा काम क्या बोल दिया सारा प्यार फ़ीका पड़ गया" "क्या हुए वो वायदे..?"
औऱ वो आज अपनी बेज़ुबानी का कोई कारण भी नहीं बता पा रहा था.! बस निरन्तर बह रही अश्रुधाराओं को मूँछो के आस-पास से हटा रहा था, "गर्मियों में रोने से ये फायदा है कि आँसू पसीने में मिश्रित हो जाते हैं औऱ अचानक किसी के आजाने या देख लेने का भय नहीं रहता.।"
अंततः कैसे भी रुँधे हुए गले को झाड़कर थोडी सावधानी से बोला, "कल से फ़ोन क्यूँ नहीं उठा रहे हो.?? ये आप क्या कर रहे हो सोना.?? क्या अपने रिश्ते को जिंदा रखने के लिए ये अदना सा एक जवाब जरूरी है.??"
बीच - बीच में थक भी रहा था वो, एक - एक शब्द भारी हुए जा रहे थे उसके लिये.! लेक़िन फ़िर ये सोचकर कि उसकी ज़िंदगी का सवाल है, उसके ख़ुशी के लिये खुद को अंदर ही अंदर मार रहा था वो। कैसे भी कर के अपने हिस्से के सवाल पूछ लिए उसने, औऱ फ़िर हमेशा की तरह उस के लम्बे से जवाब के लिए माइक म्यूट कर के सुनने लगा था.; "वो क्या है कि उसे सुनते रहना अच्छा लगता था न..!"
लेक़िन उसकी आशाओं के विपरीत इस बार एक रूखा सा औऱ कुछ ज़्यादा ही छोटा जवाब मिला, "हमारे बीच बात करने को अब कुछ बचा भी है क्या..??"
.........;
वो स्तब्ध सा बस एकटक सामने वाली दीवार को निहार रहा था, जैसे दीवार के उसपार कुछ छूटा जा रहा हो उसका.। कुछ देर तक फ़ोन लगभग चुप सा रह गया औऱ फिर एक बीप के बाद फ़ोन कट गया..;
दसियों रिंग्स के बाद फ़ोन वाइब्रेट हुआ एक झटके के बाद उसने खुद को संभाला; फ़ोन रिसीव हो चुका था।
सामने से आवाज़ आई "हलो"
हमेशा की तरह आज, "बोलो बाबू" से शुरुआत नहीं हुई थी.। ये सुनकर लगभग बिखर गया वो.; लेक़िन ख़ुदको समेटने की कोशिशें करने लगा। फ़ोन के डिस्प्ले से होती हुई दो पतली सी लेक़िन तीव्र धाराएँ माइक्रोफोन के पास निचले कोने पर संगम बना रही थी, और वो बोलने का असफ़ल प्रयत्न किये जा रहा था।
सामने से अब भी आवाज़ें आ रही थीं.; "हल्लो" "बोलते क्यूँ नहीं??" "मुँह में आवाज नहीं बची क्या.??" "बार बार फ़ोन कर के परेशान न करो" "एक छोटा सा काम क्या बोल दिया सारा प्यार फ़ीका पड़ गया" "क्या हुए वो वायदे..?"
औऱ वो आज अपनी बेज़ुबानी का कोई कारण भी नहीं बता पा रहा था.! बस निरन्तर बह रही अश्रुधाराओं को मूँछो के आस-पास से हटा रहा था, "गर्मियों में रोने से ये फायदा है कि आँसू पसीने में मिश्रित हो जाते हैं औऱ अचानक किसी के आजाने या देख लेने का भय नहीं रहता.।"
अंततः कैसे भी रुँधे हुए गले को झाड़कर थोडी सावधानी से बोला, "कल से फ़ोन क्यूँ नहीं उठा रहे हो.?? ये आप क्या कर रहे हो सोना.?? क्या अपने रिश्ते को जिंदा रखने के लिए ये अदना सा एक जवाब जरूरी है.??"
बीच - बीच में थक भी रहा था वो, एक - एक शब्द भारी हुए जा रहे थे उसके लिये.! लेक़िन फ़िर ये सोचकर कि उसकी ज़िंदगी का सवाल है, उसके ख़ुशी के लिये खुद को अंदर ही अंदर मार रहा था वो। कैसे भी कर के अपने हिस्से के सवाल पूछ लिए उसने, औऱ फ़िर हमेशा की तरह उस के लम्बे से जवाब के लिए माइक म्यूट कर के सुनने लगा था.; "वो क्या है कि उसे सुनते रहना अच्छा लगता था न..!"
लेक़िन उसकी आशाओं के विपरीत इस बार एक रूखा सा औऱ कुछ ज़्यादा ही छोटा जवाब मिला, "हमारे बीच बात करने को अब कुछ बचा भी है क्या..??"
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वो स्तब्ध सा बस एकटक सामने वाली दीवार को निहार रहा था, जैसे दीवार के उसपार कुछ छूटा जा रहा हो उसका.। कुछ देर तक फ़ोन लगभग चुप सा रह गया औऱ फिर एक बीप के बाद फ़ोन कट गया..;
वो फ़िर से रो रहा था, लेक़िन मैं जानता हूँ, "बेहद मजबूत है वो.!"
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