"आकर्षण"
आकर्षण
वो, बंगाली थी।
पिता गुवाहाटी में कार्यरत है।
सौंदर्य वर्णन शायद आवश्यक नहीं!
हाँ, लेकिन स्वाभाव से बेहद ही सहज-सरल, व् स्पष्ट बात करने वाली लड़की थी।
ये सिलसिला 30 अक्टूबर को शुरू हुआ;
मैं रेलवे कर्मचारी विश्राम गृह में कार्यरत हूँ।
30 तारीख को सुबह लगभग 8 बजे एक परिवार मेरे यहाँ आया।
"एक पति-पत्नी व् उनकी एकलौती बेटी थी"
दिल्ली घूमने का कार्यक्रम था उनका।
नियमानुसार "प्रवेश पत्र" सत्यापित करवाने के बाद में कमरा देता हूँ; और अपने दिमाग में भी सबकुछ याद करना होता है।(चेहरा, कब तक रुकेंगे वगैरह..)
मैंने पहली बार उसे देखा था, और झूठ क्या बोलना "आँखे ठहर जाती है"...
सादगी! ने खासा प्रभावित् किया मुझे।
लेकिन ये क्या वो भी, मुझको...😳
मैं खुद को संभाल के अपने काम में लग गया।
उनको भूतल पे ही कमरा अच्छा लगा तो मैंने चाबी दे दी।
फिर वो अपने कमरे में जाने लगे; और जाते हुए भी उसने जो "आँखे नचाई" थी.. सम्भलना मुश्किल हो जाता!
"अगर मैं पहले से अकेला(single) होता तो"
फिर मैं व्यस्त हो गया, अपना काम ही ऐसा है। रोज कोई न कोई आता-जाता रहता है।
10 बजे फिर वो लोग आये, और मुझसे शहर की जानकारी जुटाने लगे.......!
लेकिन वो....., मुझे नहीं पता की ये क्या था और क्यूँ था।
शायद आकर्षण ही था!
फिर रोज यही सिलसिला चलने लगा था।
मेरा नम्बर उनके पास था;
और मैंने बोला भी था की कोई दिक्कत हो तो बात कर लीजियेगा। (नम्बर भी उसने ही लिया था मुझसे)
फिर क्या, उसका वो हर जगह रास्ता भटक जाना,और मुझे फोन करना, "आगे कहाँ जाए" ये भी मुझसे ही तय करवाना........!
ये सब शायद ही भूल पाउँगा।
कल शाम को अपनी मम्मी के साथ आई, चेहरे पे वो मुस्कान नहीं थी। शायद यात्रा की थकान हो..., खैर कुछ भी!
बातचीत के दौरान उनकी माताजी ने बताया की;
"अगले दिन सबेरे की वापसी फ्लाइट है, और आप थोडा ओला बुक कर दीजियेगा सुबह में"
लेकिन ये क्या;
मेरी नज़र अचानक उसकी ओर क्यूँ?
ऐसा तो हरदम होता है। आजतक सैकड़ो लोग आये और चले गए, सबसे बातें भी होती थी, गाड़ियां भी बुक करा हूँ कितनो के लिये...!
(मगर ऐसा कभी नहीं हुआ था आजतक)
वो मेरी नजरो में पता नहीं क्या ढूंढ रही थी और मैं भी बेबस सा हो गया था ।
अचानक लाल हुए जा रहे गालो पे गिरे एक बूँद ने मुझे। झकझोर के जगा दिया।
मैं मजबूर था, आँखों के सवाल का जवाब... जुबां से देना असम्भव है...! ये कोई प्यार करने वाला ही समझ सकता है की वो परिश्थिति क्या रही होगी।
क्या कहूँ? कैसे कहूँ?
बस देखने मात्र को शांत था मैं, "अंदर युद्ध जैसा माहौल था"।
उसको बताना भी जरूरी था की *मैं किसी और के लिए* हूँ!!
🤔
किसी तरह मैंने बता ही दिया.....!
कुछ देर तक तो वो
वो स्तब्ध सी देखती रही.....,
और अचानक उठके चली गई।
(शायद मेरी मज़बूरी समझ गई थी)
उसके बाद सीधे आज सबेरे ही मुझे दिखी....!
नजर में कोई खाश बदलाव तो नहीं था, लेकिन चेहरा बहुत कुछ बोल रहा था।
खैर जाने-अनजाने दोषी तो मैं भी था। इसीलिए नज़रे चुराना ही ज्यादा आसान काम था।
कार आ गई थी; सामान रखा जा रहा था, लेकिन नजऱ.... !!
और सबसे यादगार तो वो उसका बिना गेट खोले बैठना था😊
मैं मुस्करा दिया था, और वो...
गाड़ी अब स्टार्ट हो गई थी, और *धड़कनो* ने भी टॉप गियर पकड़ लिया था।
वो चली गई...........😔
पता नहीं क्यूँ, लेकिन उसको भूल नहीं पाउँगा।
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(लेखक)
📝आदित्य प्रकाश पाण्डेय