Wednesday, May 22, 2019

आख़िरी कॉल.। (भाग -1)



आख़िरी कॉल (भाग -1)


फोन रिंग हो रहा था, और उसकी धड़कन जैसे बैठी जा रही थी.! मन ही मन सोच रहा था, के क्या ये आख़िरी बात होगी उससे.? क्या वो फ़ोन रिसीव करेगी.? या फ़िर पिछले दर्जनों फ़ोन कॉल्स की तरह ये भी इग्नोर किया जाएगा.! तमाम बातें उसे अंदर ही अंदर तोड़ रही थी, लेक़िन था वो बेहद ही मज़बूत।
दसियों रिंग्स के बाद फ़ोन वाइब्रेट हुआ एक झटके के बाद उसने खुद को संभाला; फ़ोन रिसीव हो चुका था।
     सामने से आवाज़ आई "हलो"
हमेशा की तरह आज, "बोलो बाबू" से शुरुआत नहीं हुई थी.। ये सुनकर लगभग बिखर गया वो.; लेक़िन ख़ुदको समेटने की कोशिशें करने लगा। फ़ोन के डिस्प्ले से होती हुई दो पतली सी लेक़िन तीव्र धाराएँ माइक्रोफोन के पास निचले कोने पर संगम बना रही थी, और वो बोलने का असफ़ल प्रयत्न किये जा रहा था।
     सामने से अब भी आवाज़ें आ रही थीं.; "हल्लो"  "बोलते क्यूँ नहीं??" "मुँह में आवाज नहीं बची क्या.??"  "बार बार फ़ोन कर के परेशान न करो" "एक छोटा सा का
म क्या बोल दिया सारा प्यार फ़ीका पड़ गया" "क्या हुए वो वायदे..?"

औऱ वो आज अपनी बेज़ुबानी का  कोई कारण भी नहीं बता पा रहा था.! बस निरन्तर बह रही अश्रुधाराओं को मूँछो के आस-पास से हटा रहा था, "गर्मियों में रोने से ये फायदा है कि आँसू पसीने में मिश्रित हो जाते हैं औऱ अचानक किसी के आजाने या देख लेने का भय नहीं रहता.।"
अंततः कैसे भी रुँधे हुए गले को झाड़कर थोडी सावधानी से बोला, "कल से फ़ोन क्यूँ नहीं उठा रहे हो.?? ये आप क्या कर रहे हो सोना.?? क्या अपने रिश्ते को जिंदा रखने के लिए ये अदना सा एक जवाब जरूरी है.??"
बीच - बीच में थक भी रहा था वो, एक - एक शब्द भारी हुए जा रहे थे उसके लिये.! लेक़िन फ़िर ये सोचकर कि उसकी ज़िंदगी का सवाल है, उसके ख़ुशी के लिये खुद को अंदर ही अंदर मार रहा था वो। कैसे भी कर के अपने हिस्से के सवाल पूछ लिए उसने, औऱ फ़िर हमेशा की तरह उस  के लम्बे से जवाब के लिए माइक म्यूट कर के सुनने लगा था.; "वो क्या है कि उसे सुनते रहना अच्छा लगता था न..!"
लेक़िन उसकी आशाओं के विपरीत इस बार एक रूखा सा औऱ कुछ ज़्यादा ही छोटा जवाब मिला, "हमारे बीच बात करने को अब कुछ बचा भी है क्या..??"
.........;
वो स्तब्ध सा बस एकटक सामने वाली दीवार को निहार रहा था, जैसे दीवार के उसपार कुछ छूटा जा रहा हो उसका.। कुछ देर तक फ़ोन लगभग चुप सा रह गया औऱ फिर एक बीप के बाद फ़ोन कट गया..;

वो फ़िर से रो रहा था, लेक़िन मैं जानता हूँ, "बेहद मजबूत है वो.!"


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✍️ आदित्य प्रकाश पाण्डेय

Saturday, May 4, 2019

कहानी : द क्वीन ऑफ़ चेस "लेखक: योगी अनुराग"



कहानी : द क्वीन ऑफ़ चेस

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उसका नाम रहने ही दीजिए न, नाम बताना जरूरी है क्या? “क्वीन” काफ़ी नहीं!

बहरहाल, उसका नाम था : गुंजन।

बड़ी बड़ी काली सफ़ेद गोटियों-सी आखें, चौकोर सा कोमल मुख, आक्रामक भाव-भंगिमाएँ और ढेर सारी बातें। कुलमिला कर ठीक वैसी ही थी मानो संगमरमर के शतरंज की “क्वीन” उठ कर मानव रूप में आ गयी हो!

लड़के के कॉलेज से चार सौ मीटर दूर वाणिज्य संकाय था, माने कॉमर्स फ़ैकल्टी। उस कॉलेज के द्वितीय वर्ष में पढ़ती थी इस कहानी की नायिका “गुंजन”, अव्वल दर्जे की शतरंज खिलाड़ी थी। शायद पूरे विवि की लड़कियों में सर्वश्रेष्ठ!

किंतु गुंजन ने कभी ये न देखा था कि कोई खिलाड़ी अपने कई मोहरे सिर्फ़ आक्रमण की पंक्तियाँ खोलने के लिए मुफ़्त में दे सकता है और अंततः जीत लेता है। कुछ इस तरह लड़के की उस लड़की से भेंट, विवि की शतरंज प्रतियोगिता में हुयी थी। प्रतियोगिता के नॉकआउट राउंड्स में लड़का भी चयनित हुआ और लड़की भी!

ये बात 2011 की है, उन दिनों की, जब वो लड़का मात्र साढ़े सोलह बरस का था!

वो एक प्रतिष्ठित विवि में स्नातक का छात्र, कुलजमा एक माह पहले ही प्रवेश लिया था। अगस्त के मानसून का समय था, जब एसवीएम के वातावरण से निकला पाँच फ़ीट का एक लड़का स्वयं को कॉलेज में ढालने का अभ्यास कर रहा था।

विवि में कुल आठ कॉलेज थे। अभियंत्रिकी, तकनीकी, वाणिज्य, विज्ञान, कला, प्रबंधन, भाषा इत्यादि के भिन्न भिन्न संकायों वाली कॉलेज की बनावट आज़ादी से पूर्व की लगती थी। दीवारों पर सीमेंट नहीं, बल्कि लाल रंग का मोटा पेंट चढ़ा हुआ था, और उसी मोटे आवरण में ईंटों की आकृतियाँ काटी हुयी थीं। देखकर लगता था कि बड़ी मेहनत की है किसी मज़दूर समुदाय ने, वह भी व्यर्थ में।

भला दीवार पर पेंट के उपरांत ईंटों की आकृति बनाने का क्या प्रयोजन? उस लड़के के बालमन में इस तरह के प्रश्नों का ज़ख़ीरा रहता!

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संसार की हर नश्वर चीज़ की भाँति, विवि की शतरंज प्रतियोगिता भी समापन की ओर थी। और एक रोज़ हर चीज़ की तरह समाप्त हो गयी। लड़के ने प्रतियोगिता में प्रथम और लड़की ने तृतीय स्थान प्राप्त किया।

पुरस्कार वितरण के उपरांत गुंजन उस लड़के के करीब आयी और बोली, जानते हो, तुम्हारा नाम हमें बहुत अच्छा लगा। शैक्षिक स्तर में एक बरस सीनियर और तिस पर भी लड़की! उसके शब्द सुनकर लड़का सुन्न हो गया, बस इतना पूछ पाया, क्यों मैम?

गुंजन ने कहा, पहले किसी का नाम था अनुराग अवस्थी, तुम्हारे नाम से उसकी याद आती है। ख़ैर, लड़का उस समय नादान था, कुछ जान सका, तो बस हल्की सी मुस्कुराहट और सहमति के साथ वार्ता समाप्त की, जी मैम।

गुंजन ने बात को और बढ़ाया, कहाँ रहते हो?
“यहीं बॉयज़ हॉस्टल में रहता हूँ, मैम।”

“फ़ोन रखते हो, नम्बर क्या है?”
“नहीं मैम, फ़ोन रखना अलाउ नहीं है ना।”

“ओफ़्फ़ो, तुम तो निरे बच्चे हो, डेट ऑफ़ बर्थ क्या है?”
“छः मार्च, नाइनटीफ़ाइव और आपकी?”

“ट्वेंटी मई, नाइनटीवन है, तुमसे चार साल बड़ी हूँ।”
“जी मैम।”

“कभी मिलना या बात करना हुआ तुमसे तो क्या करेंगे हम?” ,लड़के के पास गुंजन के इस प्रश्न का कोई जवाब न था। वो आगे बोलीं, अपनी मेल आईडी तो दे दो, या हॉस्टल का वाइफ़ाई भी यूज़ नहीं करते?

और अंततोगत्वा, उसी शाम एक प्यार भरा मेल प्राप्त हुआ लड़के को। जिसमें लिखा था, डियर, तुम बहुत स्वीट हो, एकदम छोटे बच्चे जैसे, तुमसे मिलकर बहुत अच्छा लगा, क्या तुम मेरे साथ चेस खेलना चाहोगे? लड़के ने मेल का उत्तर दे दिया, कभी समय मिला तो ज़रूर। एक और मेल आ गया, ऐसा करो कि तुम एक फ़ोन ले लो, और जल्दी से अपना नम्बर मुझे दे दो। उत्तर वही था, नहीं ले सकता मैम, मैं छिपकर भी हॉस्टल के नियम नहीं तोड़ सकता!

"द अलकेमिस्ट" वाले "पॉलो कोएल्हो" कहते थे ना, कि जब क़ुदरत चाहती है तो हर चीज़ उन दोनों को मिलाने में लगा देती है!

वही हुआ। दो दिन बाद ही हॉस्टल में अच्छे स्तर का एक युद्ध हो गया और प्रथम वर्ष के सभी लड़कों को हॉस्टल छोड़ने का नोटिस दे दिया गया। कॉलेज के बाहर रूम लिया तो एक फ़ोन भी ले लिया। अब रूम सिर्फ़ अपना था, साझा नहीं। शतरंज हर वक़्त मेज़ पर बिछा रहता, बेड पर गिटार और माउथऑर्गन रहते।

हर सप्ताह के अंत में गुंजन की आवाज़ों की कीलें दिल में ठुक जातीं और वक़्त यूँ ही गुज़रने लगा। गुंजन कुछ कहती नहीं थी, बस उस लड़के का हालचाल पूछती, उसके बारे में टटोलती और हर पंक्ति में उसका नाम लेती!

और एक दिन वो लड़का सत्रह का हो गया। फ़ोन पर चहकते हुए बोला, मैम, कल मेरा बड्डे है, आप आएँगी ना, एक छोटी सी पार्टी है, बस मैं और आप।

ठंडी आहों के साथ बोली, “वैसे एक बात बताओ, मैं क्यों आऊँ तुम्हारे बड्डे पर?”

इस बार सब बाँध टूट गये। वो लड़का वाक़ई छोटा था, मगर जो भाव अब आ रहे थे, उनसे अपरिचित न था। बॉलीवुड मूवीज़ का गहन अध्ययन था उसके पास, और वो उस सब में दिखाय गये तथाकथित प्रेम को ही प्रेम समझता था।

पहले प्यार की बात ही निराली होती है। इतनी निराली कि “प्रेम” जैसा शब्द छू कर भी नहीं गुज़रा होता। आसमान से गिरे ओले की भाँति श्वेत और निश्कलुष होता है पहला प्रेम।

उस लड़के ने दिल के किसी गहरे भँवर से चार शब्द कहे, मानो बाँध से बंधनयुक्त जल मुक्त हुआ हो : “आई लव यू, गुंजा!”

प्रत्युत्तर में लम्बा सा भाषण सुनने को मिला, बच्चों जैसी बातें हैं अभी तुममें, तुम जानते भी हो प्यार का मतलब क्या होता है? प्यार बस एक धोखा है लड़के, बस एक धोखा। प्यार करते हो तो कहो मत, सिद्ध करो!

इस विवाद के बाद जो बातों का सिलसिला रुका, गिटार के स्वरसंघात ही समय के उलझे धागों को काटने का प्रयत्न करते और लड़के के आसपास के रूम में रहने वालों को प्रतिदिन एक नया-सा संगीत सुनने को मिलता। वो लड़का बस उन तारों को मींजने में अपना वक़्त देने लगा।

वो लड़का आज के जितना समझदार होता तो एक ख़ूबसूरत पत्र लिखता और उसमें कहता : “प्रिय गुंजा, मैं जयशंकर प्रसाद से अधिक ख़ुशनसीब हूँ, वे कहते हैं ना कि जीवन की गोधूलि में कौतूहल से तुम आए। लेकिन मैं ये नहीं कहूँगा, मैं कहूँगा कि जीवन की ऊषा में ही किरणों सी तुम हो छाई!”

लेकिन ये होना न था, तो नहीं ही हुआ। इक्कीस मई को कॉल आया, बोलीं, जानते हैं हम तुम्हारा स्वाभिमान, चाहे जो हो जाए, चाहे हमारा बड्डे हो, मगर कॉल तो करोगे नहीं। लड़के ने कहा, सॉरी मैम, भूल गया था। बोलीं, हमको न, बेवक़ूफ़ न बनाओ, सब पता है कि तुम क्या सब करते रहते हो आजकल, देवदास हो गये हो, और हाँ अब हमें मैम न कहो, गुंजा ही कहो!

लड़के ने भारीपन से कहा : “हैपी बड्डे, गुंजा!”

मगर उन्हें इतने में संतोष न था। बोलीं, मिलना है तुमसे, रूम से बाहर भी निकला करो कभी। लड़के ने कहा, मैं अपने घर आ गया हूँ मैम, कॉलेज ऑफ़ हो गये ना कल।

बातों का सिलसिला फिर चल निकला। अब बातें हफ़्ते में एक बार नहीं, बल्कि दिन में दो दो बार होने लगीं। और धीरे धीरे पुन: वही समय आ गया, विवि की शतरंज प्रतियोगिता!

और इसके बाद दो हज़ार बारह का अंत आ गया। वर्ष के अंत में लड़के की एक उपलब्धि ये रही, कि वो लखनऊ में आयोजित देश का सबसे बड़ा शतरंज टूर्नामेंट खेलने के लिए क्वालिफ़ाई कर गया और सफलतापूर्वक खेल कर भी आया। हालाँकि कोई रैंक नहीं मिली, किंतु आरंभिक स्तर पर ये एक उपलब्धि ही थी।

और दो हज़ार तेरह की शुरुआत उस लड़के की ज़िंदगी में मोहब्बत की ओस लेकर आयी। गुंजन का प्रेम बढ़ता गया और वो एक बोली, चली, तुम्हारे रूम पर चलती हूँ। लड़के ने अटकते हुए कहा, नहीं, रहने दो आप, सब गंदा पड़ा होगा, सामान बिखरा हुआ। तिस पर वो बोली, तो क्या हुआ, मैं सब ठीक कर आऊँगी। और वो रूम पर आ गयीं।

बोलीं, सुनो, पता नहीं तुम इस बात को समझते हो या नहीं, लेकिन मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ। और इतना कर कर वो लड़के से लिपट गयीं। लड़के को जनवरी में बारिश का एहसास हो रहा था। कुछ देर बाद जब बादल छँटे तो इंद्रधनुष की भाँति गुंजन की फ़रमाइश गूँजी, कोई गाना सुनाओ ना, गिटार के साथ।

लड़के के पास “ना” कहने की कोई वजह न थी, तो रंगीन भरा एक गाना गूँज उठा : “एक लड़की भीगी भागी सी...”

गाना ख़त्म न हुआ कि गुंजन ने फिर से लड़के को बाहों में ले लिया और सुबकते हुए बोली, तुम भी तो मुझे छोड़कर नहीं चले जाओगे? लड़का स्थितप्रज्ञ था, बोला, कभी नहीं। और अगर मैं ही तुम्हें छोड़कर चली गयी तो, तो मैं जी नहीं पाऊँगा गुंजा। इन पंक्तियों के बाद एक निर्विकार शांति छा गयी।

अगले ही रोज़ से लड़के के स्वभाव में नमी आ गयी थी। “सी” प्रोग्रामिंग की क्लास में, बीच से ही खड़ा हुआ और बोला, मे आई गो सर? सर ने कहा, फ़ॉर व्हाट? लड़का बोला, इट्स समथिंग अर्जेंट, सर।

और ये सब रोज़ होने लगा। होता कुछ यूँ था कि गुंजन के कॉलेज का इंटरवल लड़के से दस मिनट पहले हो जाता था। तो लड़का उन दस मिनटों को खोना नहीं चाहता था और दोनों साथ साथ लंच करते।

और एक दिन वो लड़का अठारह का हो गया। पिछले दो हफ़्ते से न तो गुंजन का कोई कॉल था और न कोई संदेश, और ना ही कॉलेज में कोई भेंट हुयी थी। अन्यमनस्क भाव से लड़के ने कॉल लगाया, फ़ोन हमेशा की भाँति स्विच ऑफ़ था।

ना कोई जन्मदिन का उत्साह और न मताधिकार मिलने का कोई उत्सव, बस गिटार के तार “इंतहा हो गयी, इंतज़ार की” गाने को संगीत का आधार देते रहे।

करीब एक हफ़्ते के बाद, वो फ़ोन पिक हुआ। उधर से एक भारी आवाज़ थी, किसी लड़के की भारी आवाज़।

“हैलो, गुंजन मैम से बात हो जाएगी?”
“कौन बोल रहे हैं?”

“जी मैं उनका जूनियर हूँ, कॉलेज में।”
“उन्हीं की क्लास में हो?”

“जी नहीं, मैं दूसरी फ़ैकल्टी का हूँ।”
“ओह, अच्छा, इसलिए जानते नहीं उनके बारे में, आठ मार्च को इस दुनिया से चली गयीं गुंजन दीदी, उनसे बात न हो सकेगी।”

कहते कहते फ़ोन के उस पार वाले लड़के का गला भर आया और इस पार वाले लड़के की आँखें। फ़ोन काट कर, निस्तेज होकर ज़मीं पर ही बैठा गया वो लड़का, मानो गुंजन के पैरों के स्पर्श वाले फ़र्श की निकटता चाहता हो, मानो जहाँ गुंजन बैठी थी, बेड के उस हिस्से पर अपना चेहरा रख कर रोना चाहता हो।

और सहसा उसने हाथ में लगे गिटार के तारों को निर्ममता से खींच दिया, मानो हथेली में तारों की धार से कोई नई लकीर निर्मित करना चाहता हो, जिसमें नाम लिखा हो : “गुंजन”।

लेकिन हथेली से कोई नाम नहीं, बस रक्त और रक्त निकला। गिटार के फेंके जाने का शोर सुनकर आसपास के मित्र आ गये और लड़के ने आँसू पोंछ कर, हथेली के घाव को दबाते हुए एक मित्र से कहा : “मैं यमुना के घाट घटिया जाना चाहता हूँ, घटिया शमशान।”

और फिर वो गिटार की धुन उस कल-कल नदी की आवाज़ के साथ रुख़सत हो गयी। बस रह गया तो शतरंज और मोहरे, जिन्हें एक बार कॉलेज के रेत में बिखर जाने पर अपनी उँगलियों से उठाया था गुंजन ने। आज भी वो लड़का उन मोहरों को अपने पास रखता है, अपने हृदय के निकट!

इति।


©

✍️  Yogi Anurag